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________________ प्राशीर्वचन आचार्य श्री हस्तिमल जी म. सा. उपमिति-भव-प्रपंच कथा (यह रूपक शैली का एक संस्कृत कथा ग्रन्थ है) ग्रन्थ के रचनाकार विद्वदवर्य सिद्धषि गरिण ने इसकी रचना करके विषय-कषाय के पंक में निमग्न संसारी जीवों को त्याग-विराग की भूमिका पर आरोहण करने के लिये एक बड़ा सरल आलम्बन दिया है, एतदर्थ अध्यात्म चेतना के जिज्ञासु उनके सदा कृतज्ञ रहेंगे, ऐसा विश्वास है। संसारी जीव हिंसा, मृषावाद, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह तथा क्रोध, मान, माया, लोभ और मोह के अधीन होकर, शब्दादि विषयों का रसिक बनकर विविध योनियों में भटकता और कष्ट उठाता है । ये ही भव विस्तार के कारण हैं । और, सदागम-सम्यक् श्रुति से भव-मुक्ति का द्वार प्राप्त होता है । सर्वविदित बात है कि त्यागी मुनियों की भक्ति भोग-वैभव के निमन्त्रण से नहीं होती, त्यागी की भक्ति त्याग से ही होती है। फिर भी परम्पराजन्य संस्कारों से व्यवहार दृष्टि वाले पात्र के लिये कही गई वैसी घटना, जैसा कि साहित्य विशारद श्री देवेन्द्रमुनि जी ने प्रस्तावना में कहा है-जो व्यक्ति परमात्म-स्वरूप की साकारता में श्रद्धा रखते हैं, उनके लिए जिनपूजा (पृ० ४८६), जिनाभिषेक (पृ० २१८) जैसे प्रसंग पठनीय हो सकते हैं ! (प्रस्तावना पृ० ६५) उनको साहजिक समझ, अपने-अपने दृष्टिकोण के अनुसार, पाठक लेखक के मूल उद्देश्य पर ध्यान रखें, हंस दृष्टि से क्षीर-नीर का विवेकी होकर वीतराग भाव को जगाने वाले निरारंभी साधनों को ग्रहण करें एवं शब्दादि विषय और काम-क्रोधादि विकारों से दूर रहकर आत्मलक्षी जीवन बनायें, इसी में स्व-पर का कल्याण है । आशा है, पाठक इसके पठन-पाठन से आन्तरिक विकारों का शमन कर भवप्रपंच से मुक्ति मिलाने में प्रयत्नशील होंगे। ६ जुलाई, १९८५ यही शुभेच्छा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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