SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1214
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्ताव ८ : उपसंहार ४३३ भवितव्यता के वशीभूत होकर असंव्यावहारिक राशि से बाहर निकलते हैं। फिर भिन्न-भिन्न प्रकार से अनन्त भव-भ्रमण करते हैं। भटकते हुए बड़ी कठिनाई से उन्हें कभी मनुष्य भव प्राप्त होता है, किन्तु उसे भी वे हिंसा-क्रोध आदि दोषों के सेवन में व्यर्थ गंवा देते हैं और मोक्ष-साधन के दुर्लभ अवसर को खो देते हैं। कभीकभी सद्गुण प्राप्त करने का अवसर मिलने पर नाममात्र की प्रगति करते हैं । यद्यपि दोष-सेवन के परिणामस्वरूप उनकी सामग्री तो नरकगामी होती है, तथापि संयोग से नदी में घिसते-घिसते गोल बने पत्थर के समान सर्वज्ञ-प्ररूपित आगमों में कथित अनुष्ठानों को करते-करते उन्हें सम्यक्ज्ञान प्राप्त होता है । तब वे स्वयं समझते हैं और दूसरों को भी समझाते हैं कि यह संसार का प्रपञ्च एक नाटक जैसा है । जैसे नाटक में पात्र भिन्न-भिन्न वेष धारण करता है वैसे ही प्राणी नये-नये शरीर धारण करता है। जैसे नर्तक अनेक स्थानों पर जाकर नृत्य करता है वैसे ही यह प्राणी समय-समय पर अनेक योनियों में प्रवेश करता रहता है । जैसे नाटक में अनेक प्रकार के झोंपड़े, घर, बंगले, महल आदि बनाये जाते हैं वैसे ही संसार में देव विमान, भवन आदि अनेक स्थान होते हैं। जैसे नाटक करने वालों का एक पूरा कुटुम्ब होता है, टोली होती है, वैसे ही संसार में प्राणी के भाई, बन्धु और कुटुम्बियों की पूरी टोली होती है । अतः यह सम्पूर्ण भव-प्रपञ्च नाटक जैसा लगता है। द्रव्य की अपेक्षा से परमार्थतः प्रात्मा एक ही है और अकेला है, पर मनुष्य आदि गति में* उसे जो भिन्न-भिन्न नाम, पर्याय रूप से मिलते हैं, वे सब कृत्रिम हैं, झूठे हैं और अल्प समय के लिए हैं, अतः विवेकशील प्राणियों को इन पर्यायों पर विश्वास नहीं करना चाहिये। यह भव-प्रपञ्च लोकस्थिति के नियमानुसार होता है, कालपरिणति के संकेत से होता है और कर्मपरिणाम की सत्ता का ही यह परिणाम है । इसका स्वभाव और भवितव्यता इसी प्रकार की होती है। जीव की स्वयं की भव्यता भी इसमें हेतु रूप रहती है । इस प्रकार लोकस्थिति, काल, कर्म, स्वभाव, भवितव्यता और निजभव्यता की परस्पर अपेक्षा से, इन सब कारण-समुदाय के एकत्रित होने पर भव-प्रपंच उत्पन्न होता है । जब भव-प्रपंच के कारणों का परिपाक हो जाता है तब इसी प्रपंच का उच्छेद करने के लिये परमेश्वर की कृपा होती है । परमेश्वर का अनुग्रह निर्मल ज्ञान का हेतु बनता है और इस विशुद्ध ज्ञान के बल से ही प्रात्मा को यह बोध होता है कि मुझे जो सुख-दु:ख अभी प्राप्त हो रहे हैं, या अभी मुझे संसार में रहना पड़ रहा है, अथवा मेरा मोक्ष भी हो सकता है, वह सब परमेश्वर की आज्ञा का पालन न करने और करने से ही होता है। परमेश्वर की आज्ञा का पालन, लेश्यामों (प्रात्मपरिणति) की विशुद्धि और उनकी आज्ञा का उल्लंघन आत्मा को मलिन करना है । इस विचार के परिणाम स्वरूप वह लेश्या को शुद्ध करने वाले सद्गुणों में प्रवृत्त होता है और लेश्या को मलिन करने वाले समस्त दोषों से दूर हटता जाता है । इस प्रकार लेश्या को शुद्ध करते-करते अन्त में उस पर पूर्ण विजय .पृष्ठ ७७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy