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________________ प्रस्ताव १ : पीठबन्ध सदा ताजी बनी रहे, इसलिये कथा के नाम का स्पष्टीकरण करने के पश्चात् में कथाविषय (कथा-शरीर) पर संक्षेप में विवेचन करूंगा। यह कथा दो प्रकार की है :अन्तरंग और बाह्य । इनमें से पहले अन्तरंग-कथा-शरीर में क्या है ? यह बतलाऊँगा। [५५-५८] इस कथा के आठ प्रस्ताव (खण्ड, विभाग) करूंगा। प्रत्येक प्रस्ताव में जिन विषयों का वर्णन करूगा उसका निष्कर्ष यहाँ प्रस्तुत करता हूँ। [५६] १. प्रथम प्रस्ताव में जिस हेतु से इस आकार-प्रकार में इस कथा की रचना की गई है, उस हेतु का स्पष्टतः प्रतिपादन करूंगा। [६०] २. दूसरे प्रस्ताव में एक भव्य पुरुष सुन्दर मनुष्य-जन्म प्राप्त कर, आत्महित करने में तत्पर होकर, सदागमा की संगति प्राप्त कर उसके साथ रहता है । एक संसारी-जीव सदागम के समक्ष अगहीतसंकेता को उद्देश्य कर अपना चरित्र (प्रात्म कथा) कहता है; जिसे प्रज्ञाविशाला के साथ भव्य पुरुष सुनता है। इस प्रसंग में संसारी जीव ने तिर्यश्च गति में कौन-कौन से और कैसे-कैसे रूप धारण किये, उन सब भावों पर वे विचार करते हैं; उनका यहाँ प्रतिपादन करूंगा। (६१-६३) ३. तीसरे प्रस्ताव में संसारी-जीव हिंसा और क्रोध के वशीभत होकर तथा स्पर्शनेन्द्रिय में आसक्त होकर विविध दुःख और दारुण पीड़ाओं को प्राप्त करता है तथा मानव-भव से भ्रष्ट होता है, इन सबका वर्णन, स्वयं संसारी-जीव के मुख से ही कराऊँगा [६४-६५] ४. चौथे प्रस्ताव में मान जिहन्द्रिय और असत्य में आसक्त होकर संसारीजीव दुःख-पीड़ित होकर कैसी-कैसी यातानायें प्राप्त करता है और अनेक दुःखों में डूबा हुआ अपार अनन्त संसार में किस प्रकार वारम्बार भटकता है, यह सब वह स्वयं बतलायेगा [६६-६७] ५. पांचवें प्रस्ताव में संसारी-जीव चोरी, माया तथा घ्राणेन्द्रिय के विपाकों का विस्तार से वर्णन करेगा [६८] ६. छठे प्रस्ताव में संसारी-जीव लोभ, मैथुन और चक्षु इन्द्रिय के विपाकों का वर्णन करेगा; जो इसके जीव ने पूर्व-भवों में अनुभव किया है [६६] ७. सातवें प्रस्ताव में संसारी-जीव महामोह, परिग्रह और श्रवणेन्द्रिय के सहयोग से कैसे-कैसे प्रपञ्च रचता है और करता है; यह बतलायेगा [७०] * पृष्ठ ५ १. शुद्ध श्रुतज्ञानधारक सद्गुरु, पात्र । २. भद्रजन, सरल स्वभावी, गतानुगतिक व्यवहार करने वाला पात्र । ...३. दीर्घदर्शी, विचक्षण, मनीषी पात्र । ४. एक इन्द्रिय से चार इन्द्रिय वाले समस्त प्राणी तथा जलचर, स्थलचर, खेचर, पशु, पक्षी आदि प्राणियों को जैन परिभाषा में तिर्यंच कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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