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________________ ३८४ उपमिति-भव-प्रपंच कथा इस प्रकार उन्होंने सदागम के माहात्म्य और राजपुत्र के जन्म से सदागम को होने वाले प्रानन्द का विस्तृत वर्णन कर सुललिता (अगृहीतसंकेता) को समझाया। यह सुनकर सुललिता ने कहा-भगवति ! जब आपका महापुरुष सदागम से इतना अधिक परिचय है तब आप मेरा भी उनसे परिचय कराइये । महाभद्रा (प्रज्ञाविशाला) ने हर्ष से इसे स्वीकार किया। तत्पश्चात् सुललिता को साथ लेकर महाभद्रा समन्तभद्राचार्य के पास प्राई । प्राचार्य को देखते ही सुललिता को अत्यधिक हर्ष हुमा। हर्षावेश में वह बोली-भगवति ! ऐसे महात्मा पुरुष का आपने अभी तक मुझे दर्शन नहीं करवाया । मैं बहुत भाग्यहीन रही, दर्शनों से वंचित रही। अरे ! आप तो सचमुच बहुत स्वार्थिनी हैं । खैर, अब आप इन महात्मा के मुझे प्रतिदिन दर्शन कराने की कृपा करावें, जिससे कि मैं भी आप जैसी विदुषी बन जाऊँ । महाभद्रा ने इस प्रार्थना को स्वीकार किया। उस दिन से दोनों प्रतिदिन प्राचार्य के पास आकर उनकी उपासना करने लगीं । एक मासकल्प (एक माह) पूर्ण होने पर प्राचार्य ने कहा-महाभद्रा ! तुम्हारी जांघों की शक्ति क्षीण होने से अभी तुम विहार करने में असमर्थ हो अतः अभी शंखपुर में ही रहो । हम तो अब यहाँ से विहार कर अन्यत्र जायेंगे । अन्यदा फिर कभी हम यहाँ आयेंगे । तुम्हारे विशेष हित और जागृति के लिये ही हम पूरे एक माह तक यहाँ रहे । अन्यथा जिस क्षेत्र में साध्वियां विराजित हों वहाँ शेषकाल में साधुओं को मासकल्प करने (एक माह ) भी रुकने का अधिकार नहीं है, किन्तु रोगी की सहायता के पुष्ट आलम्बन से ही हम यहाँ एक महीने रुके । अब तुम्हें यहाँ रहकर राजपुत्र पुण्डरीक (भव्यपुरुष) का विशेष ध्यान रखना चाहिये और उसके अनुकूल कार्य करना चाहिये । योग्य अवस्था को प्राप्त होकर वह मेरा शिष्य बनेगा। महाभद्रा ने प्राचार्य के वचन को स्वीकार किया और प्राचार्य श्री वहाँ से विहार कर अन्यत्र चले गये। पुण्डरीक और समन्तभद्र का परिचय क्रमशः पुण्डरीक बड़ा होने लगा। उसकी बाल्यावस्था समाप्त हुई और वह युवावस्था को प्राप्त हुआ। बुद्धि के साथ उसमें गुण भी प्रस्फुटित होने लगे और महाभद्रा से उसका स्नेह भी प्रतिदिन बढ़ने लगा। अन्यदा अनेक नगरों में विहार करते हुए एक बार समन्तभद्राचार्य पुनः शंखपुर नगर के चित्तरम उद्यान में पधारे। महाभद्रा को पता लगते ही स्वयं पुण्डरीक को आचार्य भगवान् के पास ले गई। पुण्डरीक भावी भद्रात्मा था, इसलिये प्राचार्य भगवान् को दूर से देखकर ही उसके मन में अत्यन्त हर्ष हुआ । वह उनके गुणसमूह को देखकर रंजित हुआ। केवली भगवान् के वचन सुनकर उसे उन पर अतिशय प्रीति हुई। उसकी बुद्धि शुद्ध थी, पर अभी उसे विशेष ज्ञान नहीं था, अभी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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