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________________ उपमिति-भव-प्रपंच कथा में जा पाया । प्रसंगवश यदा-कदा मुझे अकाम निर्जरा हो जाती जिससे शुभ भावना उत्पन्न होती और उसके बल पर मैं व्यन्तर देव बनता। [४७२-४७३] कभी अधिक अच्छे परिणाम होने से मैं सौधर्म देवलोक भी हो पाया । एक बार देव और एक बार पशु, यों मेरा भव-भ्रमण चलता ही रहा । इन १२ देवलोक के देव कल्पोपपन्न कहलाते हैं । ये देवगण जिनेश्वर के जन्म कल्याणक आदि अवसरों पर महोत्सव करते हैं । इस आवागमन में मुझे गहिधर्म और सम्यग्दर्शन का भी फिर से सम्पर्क हुआ, जिससे मैंने दर्शनचारित्र में प्रगति की और १२ में से ८ देवलोकों में जा पाया। [४७४-४७५] हे सुलोचने ! मैं अनेक बार मानववास में भी गया। कर्मभूमि और अकर्मभूमि अन्तरद्वीपों में मनुष्य बनकर बहुत समय बिताया। अकर्मभूमि में कभी १,२ और ३ पल्योपम तक रहकर कल्पवृक्षों से अपनी मनोवाञ्छायें पूर्ण की । यहाँ जितने पल्योपम का प्रायुष्य होता, उतने ही कोस का शरीर भी होता । वहाँ सुख पूर्वक रह कर आनन्द भोगा, सुख से पाहार किया। वहाँ रहते हुए मेरे विचारों में विशुद्धता आई । फिर मैं अपनी पत्नी के साथ विबुधालय में गया । पूर्वोक्तविधि से नई-नई गोलियां प्राप्त कर वहाँ से अनेक बार अन्तरद्वीपों में गया और वापस विबुधालय में लौट आया। अन्तरद्वीपों में मेरा प्रायुष्य असंख्य वर्षों का रहा । [४७६-४८०] जब मैं कर्मभूमि में था तब अज्ञान के वशीभूत होकर जल और अग्नि में झंपापात किया, पर्वतों पर से कूदा, विष खाया, चारों तरफ अग्नि जलाकर और सूर्य का ताप सहा (पंचाग्नि तप किया), रस्सी पर उल्टा लटका,* ऐसे-ऐसे अनेक हठयोग के कर्म धर्म-बुद्धि से किये । पर, इन सब में मेरा भाव शुद्ध था, इसलिये फिर विबुधालय में गया। वहाँ किल्बिषिक देव बना। फिर मनुष्य और व्यन्तर बना । मनुष्यगति में घोर बाल (अज्ञान) तप किये, पर मन में क्रोध एवं तपस्या का अधिक गौरव (अहंकार) होने से भवनपति बना। देवगति की अधम जातियों में भ्रमण करता रहा । मैं पुनः तापस के व्रत, अनुष्ठान और अज्ञानतप के प्रभाव से ज्योतिषी देवों में भी अनेक बार घम आया। यों मेरी पत्नी अनेक बार मुझे नीच गति के देवों में और मनुष्य गति में भटकाती रही । मैंने जैन द्रव्य-दीक्षा भी ली और तप से अपनी देह को तपाया, क्रिया-कलापों के साथ ध्यान और अभ्यासपरायण भी बना, पर सम्यग्दर्शन-रहित होने से मूढता के कारण सर्वज्ञ प्ररूपित एक भी पद, वाक्य अथवा अक्षर पर श्रद्धा नहीं की । हे भद्रे ! द्रव्य-दीक्षा के फलस्वरूप अनेक बार नौ ग्रेवेयक तक जा आया। बीच-बीच में मानवावास भी आता रहा। हे सुन्दरि ! मुझे इतना क्यों भटकना पड़ा? इसका मूल कारण भी यही था कि मैं सिंह प्राचार्य के रूप में शिथिलाचारी बना। यदि उसी समय मैंने अपनी * पृष्ठ ७३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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