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________________ प्रस्ताव ८ : पुनः भव-भ्रमण ३७५ मुझ से ही कहलाना चाहती हैं। अन्यथा इसमें आपके लिये कुछ भी नवीन या अज्ञात नहीं है। भवितव्यता--भद्र अायुष्क ! यद्यपि आपकी बात ठीक है, तथापि जहाँ आपके जाने का निश्चित हुआ है वहाँ * पति के साथ मुझे तो अवश्यमेव जाकर रहना है । पर, अभी मेरे पति को उसकी आयु के एक तिहाई भाग तक और यहाँ रहना है, वह पूरा होते ही खेल-मात्र में हम शीघ्र एकाक्षनिवास पहुँच जायेंगे। (४६७-४६८] आयुष्यराज ---देवि ! आप सब जानती हैं, मैं क्या कहँ ? अब तो सिंह (संसारी जीव) शीघ्र ही वहाँ जाने के योग्य हो जायँ ऐसी सभी सामग्री तैयार करें तो अधिक अच्छा है। [४६६] हे अगृहीतसंकेता ! इसके बाद तो सभी अति प्रबल हो गये और पूरे वेग से अपनी शक्ति का प्रयोग मुझ पर करने लगे। मुझे साधुधर्म से अत्यन्त शिथिल बना दिया और अनेक प्रकार से भ्रष्ट कर सुखलम्पट बना दिया। अब मुझे थोड़ी भी सर्दी, गर्मी, विघ्न, पीड़ा, परिषह सहन न होते और मैं सब प्रकार से अधिकाधिक स्थूल प्रानन्द कैसे प्राप्त हो यह सोचने लगा । सुख-प्राप्ति की प्राशा में मैं अपने यथार्थ मार्ग का त्याग कर विपरीत मार्ग पर चल पड़ा। मेरा जीवन-मार्ग बदल गया । [४७०-४७१] साधुजीवन के अन्त में तो मैंने दैनिक क्रियाओं का भी त्याग कर दिया। मेरी चेतना मूढ़ हो गई और शरीर में अनेक प्रकार की व्याधियाँ और दोष पैदा हो गये । ऐसी बाह्य और आन्तरिक तुच्छ दशा में मैं अपने आत्म-लक्ष्य को भूल गया । उसी समय मेरी उस भव की गोली भी समाप्त हो गई। भव-भ्रमरण-परम्परा तुरन्त ही मुझे दूसरी गोली दी गई जिससे मैं एकाक्षनिवास नगर पहुंचा और वहाँ मुझे पूर्व-वरिणत वनस्पति वाले मोहल्ले में रखा गया । नयी-नयी गोलियाँ देकर मुझे इसी नगर में अनेक स्थानों पर बहुत समय तक रखा गया । फिर मुझे पंचाक्षपशुसंस्थान में ले जाया गया। वहाँ मेरी भावना कुछ विशुद्ध हई जिससे मेरी स्थिति में सहज परिवर्तन हया और मेरी सुख-प्राप्ति की लालसा पूर्ण हो ऐसी योजना आगे चलाई गई तथा मुझे विबुधालय भेजा गया । विबुधालय में जाने के बाद भी मैं कई बार पंचाक्षपशुसंस्थान में जा आया और वहाँ से फिर विबुधालय में गया। इन दोनों स्थानों के बीच मेरा बार-बार आवागमन होने लगा । पंचाक्षपशुसंस्थान से मैं कई बार व्यन्तर और दानव जाति * पृष्ठ ७३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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