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________________ प्रस्ताव ८ : गौरव से पुनः अधःपतन ३७१ देव की वस्त्र, आभूषण, मालाओं से पूजा की गई और सम्पूर्ण संघ की भोजन से तथा वस्त्रादि की प्रभावना से सविधि पूजा की गई। [४२०-४२३] * धीरे-धीरे मेरी ख्याति इतनी बढ़ गई कि सभी देव, मुनि और सज्जन पुरुष मेरे गुणों तथा मेरी ज्ञान महिमा से मेरे प्रति अधिकाधिक आकर्षित होते गये । अनेक महाविद्वान् शिष्य मेरा विनय करने लगे। अपने गच्छ के अतिरिक्त अन्य गच्छों के धुरन्धर पण्डित भी मेरे पास आने लगे । जैसे-जैसे मेरी प्रसिद्धि बढ़ती गई वैसेवैसे मेरा काम भी बढ़ता गया। [४२४-७२५] मैं अनेक ग्रामों, नगरों और राजधानियों में विहार/भ्रमण करता हुआ प्रत्येक स्थान पर विद्वत्तापूर्ण सुन्दर व्याख्यान देता, अनेक स्थानों पर सभागों को प्रसन्न करता हुआ कीर्तिपताका फहराता रहा। बड़े-बड़े वाद-विवादों में विपक्षी कुतीथियों के मत्त हस्ति-दल के कुम्भस्थलों को मैंने अपनी भाषा रूपी अंकुशों से तोड़ दिया, विदीर्ण कर दिया । जब मैं स्वशास्त्र और परशास्त्र के गहन/रहस्यपूर्ण ज्ञान की बातें विस्तार से समझाता तब बड़े-बड़े सेनापति, सामन्त और महाराजा भी उच्च स्वर में अत्यन्त प्रशस्त शब्दों में मेरा यशोगान करते, मेरी कीर्तिपताका फहराते और मेरे यश का पटह बजाते । वे इतने मधुर शब्दों में प्रशंसा करते कि जिसका वर्णन अशक्य है। उदाहरण स्वरूप वे कहते हे नाथ ! आप सचमुच धन्य हैं, भाग्यवान हैं, आपका जीवन सफल है, इस मृत्युलोक में प्राकर अापने पृथ्वी को सुशोभित किया है, अलंकृत किया है, आप वास्तव में परमब्रह्म रूप हैं, पृथ्वी के शृगार हैं, धर्म के दीपक हैं, निरपवाद हैं, सच्चे सिंह हैं, आपने अपने नाम को सार्थक किया है । अनेक तीथिक, वादी और नास्तिक भी मेरी स्तुति करते थे और मेरे समक्ष सिर झुका कर चलते थे । प्रशंसा के साथ-साथ लोग मेरी सेवा और पूजा भी करने लगे। इस प्रकार में प्राचार्य के रूप में सब लोगों का प्रिय नेता और अग्रगण्य बन गया । हे अगृहीतसंकेता! इसी बीच एक विशेष घटना घटित हुई, वह भी सुनो। [ ४२६-४३२ ] भवितव्यता की सजगता मेरी ऐसी अद्भुत ऋद्धि-सिद्धि और यश को देखकर मेरी पापिन पत्नी भवितव्यता ईर्ष्या के कारण मुझ से रुष्ट हो गई। उसे ध्यान पाया कि पूर्व में जब महामोहराजा के सैनिकों ने उससे राय पूछी थी, तब उन्हें योग्य अवसर की प्रतीक्षा करने को कहा था। मुझ पर विश्वास कर प्राशा से वे बेचारे चुप हो गये थे । मुझे लगता है, अब उनका कार्य-सिद्धि का योग्य अवसर आ गया है। यदि मैं उन्हें सूचित कर दूंगी तो वे अपनी शक्ति का प्रयोग कर प्रसन्न और सुखी हो सकेंगे। * पृष्ठ ७२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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