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________________ १०. गौरव से पुनः अधःपतन सिंह को दीक्षा भवितव्यता के प्रभाव से मैं पाँचवें अवेयक से फिर छठी बार मनुज गति के धातकी-खण्ड-स्थित भरत क्षेत्र में शंखनगर में महागिरि राजा की भद्रा रानी की कुक्षि से सुन्दर रूपवान पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ । यहाँ मेरा नाम सिंह रखा गया। राजवंश में जन्म होने से मुझे भोग की सभी सुन्दर सामग्री यथेष्ट रूप में प्राप्त हुई। __ अनुक्रम से मैं युवावस्था को प्राप्त हुआ । हे सुलोचने ! उस समय मैंने धर्मबन्धु नामक विद्वान् मुनि के दर्शन किये। उनके उपदेश से मैंने राज्य-वैभव का त्याग कर भागवती दीक्षा ग्रहण की । हे चारुगामिनि अगृहीतसंकेता ! इस बार मैंने साधुओं की सर्व क्रिया-कलापों का अभ्यास किया, चरण-करण क्रिया में अच्छी तरह उद्युक्त हुआ, उग्र विहार किया और सद्भाव-पूर्वक सूत्र और अर्थ का अभ्यास करने का प्रयत्न किया। [४१३-४१६] आचार्यपद-प्राप्ति : यश और सन्मान थोड़े ही समय में मैंने द्वादशांगी (बारह अंगों) का अभ्यास कर लिया तथा मुझे चौदह पूर्व सहित द्वादशांगी प्राप्त हो गई। सदागम मेरे पास अतिशय प्रेमपूर्वक सगे भाई के समान रहने लगा। पहले भी मैंने अनेक बार बहुत ज्ञान प्राप्त किया था पर पूरे चौदह पूर्वो का ज्ञान कभी प्राप्त नहीं हुआ था। इस बार तो पूरे चौदह पूर्वो का विशिष्ट ज्ञान मैंने खेल ही खेल में प्राप्त कर लिया। सदागम के सम्बन्ध से मुझे उत्कृष्ट ज्ञान प्राप्त हुआ। [४१७-४१६] मेरे गुरु धर्मबन्धु ने जब देखा कि मैंने सभी सूत्र-अर्थ का अभ्यास सम्यक रीति से कर लिया है तब उन्होंने मुझे श्री संघ के समक्ष आचार्य पद पर स्थापित कर दिया। उस समय अतिशय प्रमुदित होकर देव, दानव और मनुष्यों ने चमत्कारपूर्ण महोत्सव किया। लोगों ने, देवताओं ने और गुरुजी ने भी मेरी श्लाघा/प्रशंसा की कि 'अहा ! इतनी छोटी उम्र में इतना सारा ज्ञान ग्रहण किया, अतः तुम धन्य हो ! तुम्हारा अवतार सफल है !' मेरे आचार्य-पद-महोत्सव पर लोकबन्धु जिनेश्वर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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