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________________ ३५८ उपमिति-भव-प्रपंच कथा आचार्य--मात्र छः महीनों में । गुणधारण-नाथ ! शीघ्रता कीजिये । मेरा मन प्रव्रज्या (दीक्षा) लेने के लिये अत्यधिक उतावला हो रहा है। मुझे तो अभी दीक्षा दीजिये। छ: मास का समय तो अत्यन्त लम्बा है। मेरे लिये इतनी प्रतीक्षा करना बहुत कठिन है । कृपया अब अधिक बिलम्ब मत कीजिये। प्राचार्य राजन् ! शीघ्रता व्यर्थ है। जिन सद्गुणों का अनुष्ठान/आचरण करने के लिये अभी मैंने कहा है, वे सद्गुण ही परमार्थ से दीक्षा है । द्रव्यलिंग (साधु का वेष) तो तुमने पहले भी अनन्त बार लिया है, पर सद्गुणों का आचरण भली प्रकार नहीं करने से, भावलिंग न होने से उस वेष से तुम्हारा कोई वास्तविक विकास न हो सका, तुम कोई विशिष्ट गुणों का सम्पादन नहीं कर सके। अतः पहले मेरे द्वारा उपदिष्ट इन सद्गुणों का अनुशीलन करो, फिर दीक्षा लेना। __कन्दमुनि-गुरुदेव ! दस कन्याओं में से पहले किससे और बाद में किससे लग्न होगा? आचार्य–आर्य! गुगधारण राजा जब मेरे द्वारा उपदिष्ट सदगुणों का अनुशीलन और आचरण करेगा तब थोड़े समय बाद सद्बोध मन्त्री अपनी कन्या विद्या को लेकर राजा के पास आयेगा और विद्या का लग्न राजा से करेगा। फिर वह राजा के पास ही रहेगा। यह मन्त्री बहुत ही कुशल, अनुभवी और अवसर का जानकार है। वह इतना विश्वसनीय है कि उसके रहते हुए हमारे जैसों को उपदेश देने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। अत: उसके आने के पश्चात् वह स्वयं ही सब कुछ बता देगा। राजा गुणधारण को तो मात्र उसके परामर्श को प्रमाणीभूत मानकर उसके अनुसार कार्य करते रहना होगा। गुणधारण-भगवन् ! आपकी महान कृपा। अब मैं आपके निदश की प्रतीक्षा करूंगा। तत्पश्चात् अपने परिवार और सेवकों सहित प्राचार्य भगवान को वन्दन कर मैं वापस अपने नगर में लौटा आया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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