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________________ प्रस्ताव : दस कन्याओं से परिणय शरीर के अंगोपांगों को अनिमेष दृष्टि से टकटकी लगाकर नहीं देखना चाहिये, जहाँ युगल रति क्रिया कर रहे हों ऐसे स्थानों के निकट में नहीं ठहरना चाहिये, पहले किये गये भोग-विलास का स्मरण नहीं करना चाहिये, गरिष्ठ और चटपटा भोजन नहीं करना चाहिये, प्रमाण से अधिक भोजन नहीं करना चाहिये, शरीरशृंगार नहीं करना चाहिये और रति- अभिलाषा का सर्वथा दमन कर देना चाहिये । ६. विद्या कन्या के अभिलाषिक को यह सोचना चाहिये कि सब पुद्गल द्रव्य, देह, धन, विषय आदि अनित्य हैं, शरीर अपवित्र पदार्थों से भरा है, अन्ततः ये सभी दुःख - स्वरूप हैं और आत्मा पुद्गल से भिन्न स्वभाव वाली है । अतएव सब प्रकार के कुतर्क - जालों को तहस-नहस कर देना चाहिये और वास्तविक वस्तु-तत्त्व पर पूर्णरूपेण चिन्तन-मनन करना चाहिये । ऐसे सद्गुण धारक को सद्द्बोध स्वयं बुलाकर सम्यग्दर्शन की श्रात्मजा विद्या को प्रदान करता है । १०. निरीहता कन्या के इच्छुक को यह सोचना चाहिये कि इच्छायें चित्तसंताप को बढ़ाने वाली हैं । भोग-प्रभिलाषा मन को उद्व ेग देने वाली है । जन्म मृत्यु के लिये ही होता है । प्रिय का संयोग भी वियोग के लिये ही होता है । रेशम का कीड़ा जैसे अपने शरीर में से रेशम के तन्तु निकाल कर स्वयं ही उसमें बँध जाता है वैसे ही प्राणी अपने संसार - विस्तार में स्वयं ही निबिड बन्धनों में बँध जाता है । वस्तुों के संग्रह करने की प्रवृत्ति क्लेश को बढ़ाने वाली है । सर्व प्रकार के संग एवं सम्बन्ध उद्विग्नता बढ़ाने वाले हैं, प्रवृत्ति दुःख-रूप है और निवृत्ति ही सुख-स्वरूप है । ऐसे विचार निरन्तर करते रहने चाहिये । ऐसे विचारक के प्रति निरीहता कन्या प्रगाढ़ानुराग धारण करती है । ३५७ हे राजन् ! उपर्युक्त सभी सद्गुणों का अभ्यास तुझे निरन्तर करना चाहिये जिससे वे दस कन्याएँ तुझे प्राप्त हो सकें। ऐसा करते हुए योग्य अवसर के प्राप्त होने पर कर्मपरिणाम महाराज जब चारित्रधर्मराज को सेना के साथ तेरे पास भेजेंगे तब उस सेना के प्रत्येक योद्धा में जो-जो सद्गुण हैं उनका अभ्यास तुझे करना होगा और उन्हें अपने जीवन में उतारना होगा, जिससे उन सब का अनुराग तुम्हारे प्रति आकर्षित हो । फिर तो वे स्वामी-भक्त सुभट महामोह की सेना को शीघ्र मार भगायेंगे ।" इस प्रकार तुझे भावराज्य की प्राप्ति होने पर तुम अपने स्वयं के बल से भाव - शत्रुओं पर विजय प्राप्त करोगे और इन दस कन्याओं के साथ श्रानन्द-सुख भोगते हुए अनन्त सुख को प्राप्त करोगे । अतएव तुम्हें उन उपर्युक्त समस्त सद्गुणों का अनुष्ठान करना चाहिये । लग्न सम्बन्धी उपाय- चिन्तन कन्दमुनि - - गुरुदेव ! गुणधारण राजा की यह अभिलाषा कितने समय में पूर्ण होगी ? * पृष्ठ ७१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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