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प्रस्ताव ८ : दस कन्याओं से परिणय
महाराज चारित्रधर्मराज और विरति देवी की पुत्री निरीहता है ।
हे आर्य ! ये दस कन्याओं के नाम, उनके माता-पिता के नाम और उनके निवास स्थान हैं।
कन्दमुनि–नाथ ! आपकी बड़ी कृपा । अब कृपया यह बताइये कि महाराजा गुणधारण को ये कन्याएँ कैसे प्राप्त होंगी?
प्राचार्य - महाराजा कर्मपरिणाम कालपरिणति आदि के साथ विचार कर, उनकी अनुमति प्राप्त कर, पुण्योदय को आगे कर, उन-उन नगरों में जाकर, उन कन्याओं के माता-पिता को अनुकूल कर, उन समस्त कन्याओं को महाराज गुरणधारण को दिलवायेंगे। महाराज गुणधारण को तो केवल सद्गुणों का अभ्यास करते हुए अपनी प्रात्मयोग्यता बढ़ानी चाहिये जिससे कि कर्मपरिणाम उनके अनुकूल हों।* कर्मपरिणाम के अनुकूल होने पर कन्याओं के माता-पिता स्वत: ही प्रसन्न होकर कन्यादान के लिये तैयार हो जायेंगे और दसों कन्यायें भी स्वत: ही इनकी अनुरागिरणी बन जायेंगी। इससे गुणधारण और दसों कन्याओं के मध्य अकृत्रिम प्रेम होगा। ऐसा स्वाभाविक प्रेम-बन्ध अत्यन्त सुदृढ़ होगा और किसी के तोड़ने से नहीं टूटेगा।
कन्दमुनि-भगवन् ! इसमें कहने की बात ही क्या है ? आपके वचनों का यथार्थतः पालन कर और सद्गुणों का अभ्यास कर महाराज गुणधारण नाम को सार्थक करेंगे । वे आपकी आज्ञानुसार ही करेंगे । नाथ ! आप केवल विशेषरूप से यह आदेश दें कि उन कन्याओं की प्राप्ति के लिये कौन से सद्गुण सतत अनुशीलन करने योग्य हैं ? अनुशीलनीय गुण
प्राचार्य-आर्य ! सुनो
१. क्षान्ति कन्या को प्राप्त करने के इच्छुक को सभी प्राणियों से मैत्री रखनी चाहिये । अन्यों द्वारा किये गये पराभव को सहन करना चाहिये । उसके द्वारा पर-प्रीति का अनुमोदन करना चाहिये। पर-प्रीति के संपादन से आत्मा पर अनुग्रह होता है, ऐसा समझना। आत्मा का पराभव करने से दुर्गति प्राप्त होती है, अतः ऐसी आत्मा की निन्दा करना। जो मुक्तात्मा दूसरों को कभी क्रोधित नहीं करते, वस्तुत: वे धन्य हैं, फलत: उनकी प्रशंसा करना। हमारा तिरस्कार करने वाले हमारी कर्म-निर्जरा के हेतु हैं, अतः उन्हें हितकारी समझना। संसार को असार बताने वाले को गुरु-भाव से स्वीकार करना और सदा अपने अन्तःकरण को निश्चल/ स्थिर बनाना।
२. दया कन्या को प्राप्त करने के अभिलाषी को किसी भी प्राणी को लेशमात्र भी सन्ताप नहीं पहँचाना चाहिये, सभी प्राणियों के प्रति बन्धु-भाव का
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