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________________ उपमिति भव-प्रपंच कथा क्रमानुसार अन्य मुनियों को भी वन्दन किया । केवली भगवान् श्रौर मुनियों से आशीर्वाद प्राप्त कर, पुनः पुनः नमन कर, शुद्ध निर्जीव जमीन देखकर बैठ गये । मुझे अत्यन्त प्रमोद हुआ और मेरी अन्तरात्मा अतिशय प्रसन्न हुई । केवली भगवान् ने भव्य जीवों के कर्मविष को नष्ट करने के लिए अमृतवृष्टि के समान मधुरामृत वाणी से देशना प्रारम्भ की । [ २२८-२३२] धर्मदेशना ३४२ भव्य प्राणियों ! यह संसार-चक्र जो निरन्तर घूमता ही रहता है और जो अनेक प्रकार के भयंकर दुःखों से परिपूर्ण है, उसमें धर्म के अतिरिक्त अन्य कोई वस्तु ऐसी नहीं है जिसकी शरण ली जा सके । यहाँ मृत्यु के लिये ही जन्म होता है । रोग-वहन के लिये ही शरीर प्राप्त होता है । वृद्धावस्था के हेतुभूत यौवन आता है । वियोग के लिये ही संयोग का समागम होता है । इसमें अनेक प्रकार की स्थूल सम्पत्तियों की प्राप्ति भी दुःख के लिये ही होती है । अतः शरीर, यौवन, संयोग और सम्पत्तियां जिन्हें आप बहुत ही कीमती समझते हो, हे सांसारिकजनों ! वे सब दुःख की ही कारणभूत हैं । प्राणियों के सम्बन्ध / सम्पर्क में आने वाली संसार की एक भी वस्तु ऐसी नहीं है जो उसके दुःख के लिये न हो । सांसारिक पदार्थों में सुख की प्राशा करना मरुस्थल में जल की आशा करना है । आप पूछेंगे कि फिर सुख कहाँ है और सुखी कौन है ? जो अमूर्त दशा को प्राप्त हो गये हैं, जो सर्व भावों को जानते हैं, जो त्रैलोक्य से भी ऊपर (सिद्धगति) में पहुँच गये हैं, जिन्होंने सभी प्रकार के संग का त्याग कर दिया है, ऐसे महात्मा गरण ही सुखी हैं । सर्व प्रकार के राग-द्वेष आदि द्वन्द्वों से जो मुक्त हैं, जिनकी सब प्रकार की पीड़ा / बाघा नष्ट हो गई है और जिनके सभी सत्कार्य सिद्ध हो गये हैं, ऐसे महात्माओं के सुख का तो कहना ही क्या है ? जिस प्राणी का संसार में जन्म ही नहीं होगा, उसे न बुढ़ापा सतायेगा और न मृत्यु । जब जन्म, जरा, मृत्यु का अभाव हो जाता है तब सभी दुःखों का प्रभाव स्वतः ही हो जाता है । सब दुःखों का नाश होने पर ही परमानन्द भाव की प्राप्ति होती है, शाश्वत सुखों की प्राप्ति होती है, अत: सिद्धों का सुख प्रन्याबाध होता है । अथवा संसार में रहने वाले भी जिन महापुरुषों ने बाह्य और प्रान्तरिक परिग्रह का त्याग कर दिया है, जो निःस्पृह / इच्छारहित हो गये हैं, जो संतुष्ट हैं, जो ध्यानमग्न हैं, जो समता रूपी अमृत का पान करते हैं, जो संगरहित हैं, जो अहंकार रहित हैं और जिनका चित्त निर्मल हो गया है, ऐसे सुसाधु महात्मा शरीर धारण करते हुए भी परम सुखी हैं । * * पृष्ठ ७०७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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