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________________ प्रस्ताव ८ : निर्मलाचार्य : स्वप्न-विचार ३४१ आह्लादित करता रहा। हे सुन्दरांगि ! इस प्रकार पत्नी मदनमंजरी और मित्र कुलन्धर के साथ उद्यम करते हुए और स्वर्गोपम लीला सुख भोगते हुए, प्रानन्द समुद्र में डुबकियाँ लगाते हुए मेरा बहुत समय व्यतीत हो गया। [२१२-२२०] ५. निर्मलाचार्य : स्वप्न-विचार निर्मलाचार्य का पदार्पण एक दिन कल्याण नामक मेरे एक परिचारक ने मेरे पास आकर मुझे विनयपूर्वक नमस्कार किया और बोला-देव ! आलाद मन्दिर उद्यान में देव-दानवों से पूजित अचिन्त्य महिमा वाले महाभाग्यवान् निर्मलाचार्य महाराज पधारे हैं, यही सूचना देने के लिये मैं आपके समक्ष उपस्थित हुआ हूँ [२२१-२२२] हे भद्रे ! सेवक के उपयुक्त वचन सुनते ही मुझे अवर्णनीय आनन्द हया । मानो मैं अपने शरीर, राजभवन, नगर और सम्पूर्ण त्रैलोक्य में भी न समा पाऊं इतना आनन्द हुा ।* ऐसे शुभ समाचार देने वाले सेवक को मैंने संतुष्ट चित्त होकर एक लाख मोहरें पारितोषिक में दी और उसे प्रसन्न कर विदा किया। [२२३-२२४] हे भद्रे ! फिर में अत्यन्त आदरपूर्वक अपने मित्र कुलन्धर और पत्नी मदनमंजरी को साथ लेकर सूरिमहाराज को वन्दन करने के लिये नगर से बाहर निकल पड़ा। देवताओं द्वारा स्वर्ण-निर्मित देदीप्यमान अति सुन्दर कमल पर सूरि महाराज विराजमान थे । इनके पास-पास अनेक मुनि, देव, दानव, विद्याधर आदि मर्यादापूर्वक बैठे थे। सबके मस्तक झुके हुए थे और उन सबको केवली भगवान् सुन्दर धर्मोपदेश दे रहे थे। [२२५-२२७] दूर से ही प्राचार्यश्री के दर्शन होते ही अत्यन्त आनन्द से मेरा पूरा शरीर रोमांच से विकसित हो गया। मेरे साथ अधीनस्थ राजा थे, उन्होंने और मैंने भी राज्य के पाँच चिह्न छत्र, तलवार, मुकुट, वाहन और चामर का त्याग कर दिया, उत्तरासंग धारण किया और आचार्यश्री के अवग्रह में प्रवेश किया। (३३ हाथ दूर रहकर) हम सब ने विधिपूर्वक आचार्यश्री को द्वादशावर्त वन्दन किया और योग्य * पृष्ठ ७०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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