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________________ ३३४ उपमिति-भव-प्रपंच कथा सैनिक, नगरनिवासी, बालक और वृद्ध सभी अत्यन्त हर्षित हुए । 'जिन्हें हम अपना मानते हैं उन्हें ऋद्धि-सिद्धि या मान प्राप्त होने पर प्रसन्नता हो, इसमें क्या आश्चर्य ? हमारी कल्पना से भी अधिक ऋद्धि-सिद्धि अपने प्रेमीजन को मिलती देखकर तो अपार हर्ष होता ही है।' अत्यन्त आनन्दित लोगों ने फिर हमारा नगर प्रवेश महोत्सव किया। 'अत्यधिक प्रसन्नता होने पर मानव क्या-क्या नहीं करता !' [११६-१२१] प्रवेश महोत्सव के समय विद्याधर आकाश में चलने लगे । मैं अपने पिताजी के साथ उनके पीछे जयकुंजर नामक मुख्य हाथी की अम्बाडी पर बैठा था। मेरे पीछे दूसरे हाथी पर कुलन्धर बैठा था। हथनियों पर माताजी आदि स्त्रीवर्ग बैठा था। हमारे पागे लोगों का विशाल समूह चल रहा था। कोई नाच रहे थे, कोई विलास (हँसी ठठोली) कर रहे थे, कोई हर्ष के आवेश में उच्च स्वर से गा रहे थे। कुछ ने पुष्पहार और कुछ ने सुन्दर वस्त्राभूषण पहने रखे थे, जिससे सभी लोग देवता जैसे सुशोभित हो रहे थे। अत्यन्त प्रमोद और मानसिक सुखभार के कारण उस समय वह उद्यान नन्दनवन और वह नगर देवलोक जैसा लग रहा था । अत्यन्त विशाल नितम्ब और सुन्दर उरोजों वाली ललित ललनाएँ हर्षपूर्वक नृत्य गान कर रहीं थीं। ऐसे सैकड़ों प्रकार के विलासों सहित हमारा नगर प्रवेश हुआ । [१२२-१२५] मेरे पिताजी ने कनकोदर राजा के सभी विद्याधरों तथा दोनों तरफ की सेनाओं के सभी योद्धाओं का उचित दान और सत्कार-सन्मान किया। हे अगृहीतसंकेता ! भेरा वह पूरा दिन ऐसे बीता मानो वह दिन रत्नमय हो, अमृतरचित हो, सुखरस-पूर्ण हो । अधिक क्या कहूँ, वह दिन वर्णनातीत रूप से व्यतीत हुअा । इस दिन मुझे अत्यन्त आह्लाद हुआ । सब मनोरथों की सिद्धि हुई, कामदेव का सर्वस्व प्राप्त हुया, मदनमंजरी जैसी अतुलनीय सुन्दरी प्राप्त हुई और महामूल्यवान रत्नों का भण्डार प्राप्त हुआ। मेरे काम और अर्थ सम्बन्धी अकल्पनीय मनोरथ सिद्ध हुए। उस दिन मेरे माता-पिता को अत्यधिक संतोष हुना, बन्धुवर्ग हर्षित हुआ और नागरिकों ने महोत्सव मनाया। शत्रु मेरे वश में हो गये जिससे भी मेरा मन अत्यन्त हर्षित हुआ। पूरे दिन अत्युन्नत दशा का अनुभव किया और रात्रि के प्रथम प्रहर तक पिताजी के पास रहकर हमने बहुत प्रकार से प्रानन्दोत्सव मनाया । [१२६-१३१] इसके पश्चात् रात्रि का शेष भाग * मदनमंजरी के साथ सर्व सामग्री से पूर्ण महल में बिताया। देवता देवलोक में जैसा सुख भोगते हैं वैसे ही सूख का मैंने उस रात अनुभव किया। सुरतामृत सुख के प्रेमसागर में गहरी डुबकी लगाने का अनुभव किया । पर, मेरी किसी भी विषय में अत्यन्त लोलुपता नहीं थी, इससे मैं कहीं अत्यन्त आसक्त नहीं हुआ। • पृष्ठ ७०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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