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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
जन्मोत्सव मनाया गया जिससे सर्वत्र आनन्द और बधाइयों के शब्द गूजने लगे। योग्य समय पर मेरे पिता ने अत्यन्त आनन्दपूर्वक मेरा नाम गुणधारण रखा। दूध पिलाने वाली, कपड़े पहनाने वाली, स्नान कराने वाली, खिलाने वाली और गोद में लेने वाली पाँच धायों द्वारा मेरा पालन-पोषण होने लगा । जिस प्रकार स्वर्ग में देव अनेक प्रकार के सुखों का अनुभव करते हैं* वैसे ही सुख सागर में उन पाँच धात्रियों के द्वारा पालित मैं बड़ा होने लगा। [८-१४] गुरगधारण और कुलन्धर की मैत्री
मेरे पिता के सगोत्रीय भाई विशालाक्ष नामक राजा थे। मेरे पिताजी और उनके मध्य ऐसी गाढ मैत्री थी कि दोनों एक दूसरे पर प्राण न्यौछावर करते थे । इनके एक कुलन्धर नामक पुत्र था। मेरे पिता का कुलन्घर पर अतिशय स्नेह होने से वह सप्रमोद नगर में ही रहता था। कुलन्धर और मेरे बीच भी प्रगाढ़ स्नेह था। धीरे-धीरे मित्रता बढ़ती गई और हम दोनों गाढ मित्र हो गये। कुलन्धर अतिशय विशुद्ध हृदय वाला, सुन्दर, रूपवान, भाग्यशाली, प्रवीण, सर्वगुण-सम्पन्न और वास्तव में कुल का दीपक ही था। इस शुद्ध बुद्धि वाले सद्गुणी मित्र के साथ मैं बड़ा होने लगा और हम दोनों में परस्पर सद्भावपूर्वक प्रगाढ़ स्नेह बढ़ता ही गया । फिर हमने साथ रहकर कला का अभ्यास किया, साथ-साथ खेले और साथ ही साथ कामदेव के मन्दिर स्वरूप युवावस्था को प्राप्त हुए। [१५-१६] सुन्दरी का मोहन
हमारे नगर से थोड़ी ही दूर पर मेरुपर्वत के नन्दनवन जैसा अति मनोरम आह्लादमन्दिर नामक श्रेष्ठ उद्यान था । हम दोनों को यह उद्यान अत्यन्त प्रिय था। इसे देखते ही हमारे नेत्रों को शान्ति प्राप्त होती थी और हमारा चित्त आह्लादित होता था, अतः हम प्रायः प्रतिदिन वहाँ जाते थे। [२०-२१] - एक दिन प्रातः हम इस उद्यान में गये तो हमने दूरवर्ती दो स्त्रियों को स्पष्टतः देखा। इनमें से एक तो विशाल नेत्रों वाली और अपने रूप-लावण्य एवं विलास से कामदेव की पत्नी रति की भी परिहास करने वाली थी। दूसरी स्त्री इतनी सुन्दर नहीं थी। पहली सुन्दरी ने अपने भौंहे रूपी धनुष से दृष्टिबारण मेरी तरफ फेंके । उसके दृष्टिपथ में आते ही मैं पूरा का पूरा इन बाणों से बिंध गया । फिर एक आम्र वृक्ष की शाखा पर विलास-पूर्वक लटक कर उस चारु अंग वाली ने झला झलने के बहाने अपने उन्नत उरोजों का प्रदर्शन कर मेरा मन मोह लिया। उस समय उसके बाह्य चिह्नों से मैंने उसके आन्तरिक भाव को जान लिया । उसका मन भी चकित, विस्मित, स्नेहयुक्त और विचारमग्न होकर अति लज्जित हो गया हो ऐसा मुझे लगा। मन और नेत्रों को आनन्दित करने वाली उस सुन्दर ललना के प्राकृतिक सद्भाव एवं अर्पण करने योग्य हाव-भावों को देखकर मेरा चित्त आह्लादित • पृष्ठ ६८८
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