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________________ २८८ उपमिति-भव-प्रपंच कथा धीरे-धीरे भावस्तव की क्षमता भी आजायेगी। उनके कहने से मैंने विपुल धन व्यर्थ मे ही खर्च कर दिया, अब मुझे क्या करना चाहिये ? ___ कृपणता के प्रभाव से मैं उपर्युक्त चिंता में पड़ा ही था कि तभी बहुलिका ने भी मेरा आलिंगन किया जिससे मेरे मन में कुबद्धि उत्पन्न हुई । मैं सोचने लगा 'यदि मैं किसी युक्ति से अकलंक मुनि का यहां से विहार करा सकू तो मेरा यह व्यर्थ का खर्चा बच सकता है।' यह सोचकर मैं अकलंक मुनि के पास आया और विनय पूर्वक निवेदन किया- 'भगवन् ! आपकी बड़ी कृपा है कि आप मेरे उपकार के लिए यहाँ पधारे। वह कार्य अब सम्पूर्ण हुआ और आपका मासकल्प (शेषकाल) भी समाप्त हुआ । महात्मा कोविदाचार्य को मन में बुरा लगेगा कि विहार का समय हो जाने पर भी हमने आपको रोक कर रखा । आपके अधिक रुकने से हमें भी उपालम्भ मिलेगा, अतः अब आप यहाँ से विहार कीजिये। मैं आपके आदेशों का पूर्ण रूप से पालन करूगा। आप इस सम्बन्ध में तनिक भी चिन्ता न करें, निश्चिन्त रहें ।' मेरा कथन सुनकर मुनि अकलंक वहाँ से विहार कर अपने गुरु के पास चले गये। परिग्रह पर पुनः आसक्ति अकलंक मुनि के जाते ही सागर (लोभ) के निर्देश से मैंने धर्म कार्यों में होने वाले धन-व्यय को बन्द कर दिया और पुनः परिग्रह में आसक्त हो गया। ____ मुझे फिर से अपने में आसक्त जानकर परिग्रह ने अपने मित्र से कहामित्रवत्सल सागर ! मैं तो प्रत्यक्षतः क्षय हो रहा था, तुमने आकर मुझे बचा लिया। मित्र ! तुझ से भी अधिक अपने भाई पर वात्सल्य रखने वाली इस कृपणता बहिन ने इस समय मुझे जीवनदान दिया है । बहुलिका भी मेरी परम उपकारिणी है, इसी ने मेरे प्रगाढ़ महाशत्रु अकलंक को यहाँ से निर्वासित करवाया है। हे पुरुषश्रेष्ठ ! तुमने बहुत अच्छा किया कि समय पर पहुँच कर मेरी रक्षा की और महाराजा महामोह के प्रति अपनी सच्ची भक्ति को प्रदर्शित किया । [७३७-७४०] इन तीनों की प्रशंसा सुनकर महामोह ने कहा-- वत्स परिग्रह ! * तू पूर्णरूप से सत्य ही कह रहा है । हे वत्स ! यह सागर तो मेरा प्राण ही है । मैंने अपनी सारी शक्ति इसमें स्थापित कर दी है जो इसमें पूर्णरूपेण प्रतिष्ठित हो चुकी है। मेरे सैन्यबल में यह मेरा सच्चा भक्त है, मेरा सच्चा पूत्र है, राज्य के योग्य है और तेरी रक्षा करने में सक्षम है । [७४१-७४३ ] __ महामोह द्वारा उत्तेजित सागर मुझे अधिकाधिक वशीभूत करने में समर्थ हुआ और सदागम के सम्पर्क में बाधक बना । सागर के वशीभूत मेरी प्राशा-तृष्णा दिन-प्रतिदिन बढ़ती गयी और सदागम मुझ से दूर होता गया। अन्त में मैंने सभी * पृष्ठ ६७० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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