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________________ प्रस्ताव ७ : सागर, बहुलिका और कृपणता २८७ सीखे हए ज्ञान का फिर से प्रत्यावर्तन किया, नये शास्त्रों को पढ़ने के प्रति आदर दिखाया, जिन मन्दिर बनवाये, प्रतिमायें स्थापित करवाईं, तीर्थ-यात्रायें कीं, स्नात्र महोत्सव करवाये और सुपात्रों को दान दिया। मेरी शुभ क्रियाओं को देखकर अकलंक मुनि को मन में संतोष हुआ कि उसने मुझे गुणवान बना दिया है, मुझे सुमार्ग पर ले आया है। १४. सागर, बहुलिका और कृपता महामोह के विशेष अंगरक्षक और अति समर्थ सागर (लोभ) ने जब अपने मित्र परिग्रह की दुर्दशा सुनी तब उसे अपने मन में अत्यन्त दुःख हुआ और वह मित्र की सहायता के लिये मेरे पास आने को तत्पर हुआ ।* इसके लिए उसने रागकेसरी से आज्ञा मांगी, जो उसे प्राप्त हो गयी। उस समय वहाँ बहलिका भी उपस्थित थी, उसने अपने पिता रागकेसरी से कहा---पिताजी ! जहाँ सागर जाय वहां मुझे तो अवश्य ही जाना चाहिये। आप तो जानते ही हैं कि वह मेरे बिना एक क्षण भी नहीं रह सकता। बहुलिका की मांग पर विचार करते हुए रागकेसरी ने उत्तर में कहा-पुत्रि ! अच्छी बात है, यदि ऐसा ही है तब तू भी जा । पर, कृपणता तो सागर का शरीर और प्राण ही है। जब तू जा रही है तो उसे भी साथ लेती जा, इससे सागर को भी धैर्य रहेगा । बहुलिका और कृपणता दोनों बहिनें भी साथ आ रही हैं यह जानकर सागर अत्यन्त प्रसन्न हुआ । उसने पिताजी की कृपा का आभार माना और दोनों बहिनों के साथ मेरे पास आ पहुँचा । इन तीनों को मेरे पास आते देखकर महामोह और परिग्रह भी अत्यन्त प्रसन्न हुए । आते ही कृपणता ने मेरा आलिंगन किया जिससे मेरे मन में विचार उत्पन्न हुआ कि सुख के साधन उपलब्ध कराने वाले अपने धन का अदृष्ट पारलौकिक सुख के लिए व्यय करना क्या व्यर्थ नहीं है ? पर, यह अकलंक मुनि तो मुझे नित्य ही द्रव्यस्तव (पूजा, यात्रा, महोत्सवादि) करने की प्रेरणा देता है और कहता है कि महाराज धनवाहन ! यदि अभी तेरी भावस्तव (त्याग, समता, आत्मरमरणतादि) करने की क्षमता नहीं है तो द्रव्यस्तव का आदर किया कर, आचरण किया कर । * पृष्ठ ६६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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