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________________ उपमिति भव-प्रपंच कथा तो वह श्रुतिमय ही हो गया था। वह रस में इतना लीन हो गया कि उसे कुछ भी सुध-बुध नहीं रही । संग ने भी उस समय अपनी पूरी शक्ति का प्रयोग किया जिससे बालिश बेजान होकर निर्जीव पत्थर की शिला की तरह गुफा में गिर पड़ा । बालिश के गिरने से गुफा में जोरदार धमाका हुआ । धमाके से सभी देव, गन्धर्व और किन्नर चौंक गये । रंग में भंग होने से वे सब बालिश पर क्रोधित हुए। सभी एक साथ बोल पड़े- 'अरे ! यह यहाँ कौन है ? पकड़ो, इसे मारो।' इस प्रकार आवेश में बोलते हुए उन्होंने बालिश को बन्धनों में जकड़ दिया और लात-घूसों के प्रहार से इतना मारा कि वह वहीं मर गया । [ ६६०-६६४] कोविद की दीक्षा इधर सदागम के उपदेश से कोविद ने संग का त्याग कर दिया जिससे श्र ुति के साथ होते हुए गायन सुनकर भी वह उसमें प्रासक्त ( मूर्च्छित) नहीं हुआ । बालिश को मार खाते और जमीन पर गिरते देखकर वह अविलम्ब पर्वत के शिखर से नीचे उतर आया और धर्मघोष नामक आचार्य के पास पहुँच गया । बालिश की घटना से उसकी विवेक बुद्धि जाग्रत हुई जिससे उसने दीक्षा ग्रहण करली और साधु बन गया । अनुक्रम से उसके गुरु ने उसे अपने स्थान पर आचार्य पद प्रदान किया । हे राजन् ! वही कोविद मैं स्वयं हूँ । [ ६९५ - ६६८ ] २८२ 1 राजेन्द्र ! मेरा भाई बालिश अपने शत्रु रूप मित्र संग की संगति से व्यथित हुआ, अनेक दुःख प्राप्त किये और अन्त में मृत्यु को प्राप्त हुआ । हितकारी महात्मा सदागम ने मुझे ऐसे दुःख - जाल से बचाया, क्योंकि उनके उपदेश से ही मैंने संग का त्याग किया था । फिर संयम ग्रहण करने के पश्चात् तो मेरे लिये सर्वदा आनन्द ही आनन्द है । यह सब उपकारी सदागम का ही प्रताप है । अभी भी मैं सदागम के प्रत्येक निर्देश / प्राज्ञा का पालन करता हूँ । सदागम समस्त प्राणियों का हितेच्छु है । आत्मा में स्थित आन्तरिक शत्रुओं ( मोहराज, परिग्रह ) की संगति का परिणाम बहुत ही भयंकर है । हे महाराज ! अतः जो प्राणी वास्तव में अपनी भलाई / हित चाहते हों उन्हें दुष्ट आन्तरिक शत्रुनों की संगति का त्याग कर सदागम के साथ सम्बन्ध स्थापित करना चाहिये । [ ६६६ - ७०३] धनवाहन का द्रव्य - आचार हे गृहीत संकेता ! महात्मा कोविदाचार्य की अत्यन्त सुन्दर भ्रात्मकथा मुझे नाममात्र भी नहीं रुचि । इसके विपरीत मुझे मन में ऐसा लगने लगा कि आचार्य और कलंक ने मिलकर किसी भी प्रकार मेरा महामोह और परिग्रह से साथ छुड़ाकर सदागम से संगति कराने के लिये ही यह षड्यन्त्र रचा है । [ ७०४–७०५]* * पृष्ठ ६६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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