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. ११. महामोह और परिग्रह
इधर महामोह राजा के राज्य में जब पता लगा कि चारित्रधर्मराज द्वारा सदागम को मेरे पास भेजा गया है तो वहाँ जिस प्रकार की हलचल मची, उसे भी बतलाता हूँ।
रागकेसरी के मन्त्री विषयाभिलाष को जब मालम हुआ कि उसका विशिष्ट अधिकारी ज्ञानसंवरण सदागम के भय से छिपकर बैठ गया है तब उसने महामोह महाराजा से कहा-महाराज ! अभी तक ज्ञानसंवरण को किसी प्रकार त्रास या भय नहीं था और हम सब निश्चित बैठे थे। परन्तु, देव ! अब सदागम संसारी जीव के पास जाकर रहने लगा है, जिससे ज्ञानसंवरण भयभीत हो गया है। सदागम आपका कट्टर विरोधी है, * अत: उसकी उपेक्षा करना तनिक भी उचित नहीं है । विद्वान् लोग "नाखून से उखाड़ी जाने वाली वस्तु को इतनी बढ़ने ही नहीं देते कि फिर उसे कुल्हाड़ी से उखाड़नी पड़े।" [६०३-६०७]
मन्त्री के उपर्युक्त वचन सुनकर महामोहराज की पूरी सभा क्षुब्ध और सदागम पर क्रोधित हो उठी। महायोद्धा भौंहे चढ़ाकर हुंकार करने लगे, होठ काटने लगे और जमीन पर पांव पछाड़ते हुए एक साथ ही महामोहराज से कहने लगे-- 'देव ! हमें आज्ञा दीजिये, हमें जाकर पापी सदागम को मार डालना चाहिये ।' प्रत्येक योद्धा की आवाज एक-साथ होने से सभा-स्थल में खलबली मच गयी ।
इस परिस्थिति को देखकर महामोह राजा ने कहा-मेरे वीर सैनिकों ! तुम सब कथनानुसार करने वाले ही हो। किन्तु, महापापी सदागम ने संसारी जीव के पास मेरे द्वारा प्रेषित ज्ञानसंवरण का अपमान किया है, अतः उस दुरात्मा का हनन मेरे हाथों से ही हो, यह उचित है। वीरों ! मैं तुम सब का सामूहिक रूप ही हूँ, अतः सदागम मेरे द्वारा मारे जाने पर भी उसका श्रेय तुम सब को ही मिलेगा। क्योंकि, तुम सब मुझ में समाये हुए ही हो, इसलिये उसे मारने के लिये मेरा जाना वास्तव में तुम्हारे जाने के समान ही है। तुम सब यहीं रहो, पापी सदागम को मारने के लिये मैं स्वयं ही जाता हूँ। तुम सब स्वामीभक्त हो इसलिये सावधान रहना । तुम्हारे में से जब कभी किसी की आवश्यकता पड़ेगी तब बीच-बीच में यथाअवसर अपना कर्तव्य निभाते रहना।
हे वीरों ! मेरे पौत्र रागकेसरी के पुत्र सागर का मित्र परिग्रह मुझे बहुत प्रिय है, उसे यहाँ छोड़कर जाना मुझे अच्छा नहीं लगता। यह महाशक्तिशाली है
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