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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
अकलंक की दीक्षा
इधर अंतरंग राज्य में उपर्युक्त हलचल हो रही थी उधर अकलंक सब मुनियों के गुरु जो ध्यानमग्न बैठे थे, उनके पास गया * और उनके चरण-स्पर्श कर वन्दन किया । मैं भी उसके साथ ही गुरुजी के पास गया। गुरु महाराज कोविदाचार्य का जब ध्यान पूर्ण हुआ तब उन्होंने हमें धर्मलाभ दिया और अकलंक के साथ वार्तालाप किया। अकलंक ने कुछ प्रश्न पूछे जिसका कोविदाचार्य ने उत्तर दिया। फिर वे धर्मोपदेश देने लगे। उसी समय मैंने उनके पास में बैठे महात्मा सदागम को देखा। [५८८-५६०]
मैंने अकलंक से पूछा-मित्र ! यह सदागम कौन है ?
अकलंक-घनवाहन ! ये महात्मा सदागम साधु-पुरुषों के आराध्य हैं। ये जो आज्ञा देते हैं उसे विनयपूर्वक सभी साधु स्वीकार करते हैं। सदागम का गुणगौरव एवं महत्व प्राचार्यदेव भली प्रकार जानते हैं। हे भद्र ! ये धर्म और अधर्म का विवेचन करने वाले और अत्यन्त हितकारी हैं, अतः इनसे सदुपदेश प्राप्त करने के लिए तुझे इनसे परिचय करना चाहिए। मुझे, इन साधुओं को और प्राचार्य भगवान् को जो ज्ञान प्राप्त हुअा है वह महात्मा सदागम से ही प्राप्त हुआ है। आचार्यश्री इन हितकारी सदागम से तेरा परिचय सम्बन्ध करा देंगे। इनसे परिचय सम्बन्ध करने पर तुझे शीघ्र ही अपना लाभ-हानि, हित-अहित क्रमश: सब ज्ञात हो जायगा।
हे भद्रे ! मित्र के प्राग्रह से और कुछ अन्तरात्मा के सन्तोष से मैंने सदागम से परिचय सम्बन्ध स्थापित किया। कोविदाचार्य ने सदागम के गुण और महत्ता बतलाई, पर मुझे उसके प्रति श्रद्धा नहीं हुई। केवल मित्र अकलंक को प्रसन्न करने के लिये श्रद्धाशून्य होकर मैं चैत्यवन्दन करता, साधुओं को दान आदि देता, पर मेरी अन्तरात्मा में इनके प्रति प्रीति नहीं थी। भावशून्य चित्त से मैं ऊपरी दिखावे के लिये सब काम करने लगा। हे भद्रे ! अकलंक के अनुरोध से मैं नमस्कार मन्त्र आदि का जप और पाठ भी करने लगा। इन सब कार्यों को करने में मेरा मन तो नहीं था, पर अकलंक के आग्रह से मैं सब कुछ करता रहा । [५६१-६००]
तदनन्तर माता-पिता की आज्ञा लेकर अकलंक ने तुरन्त ही गुरु कोविदाचार्य के पास दीक्षा ग्रहण की और सुसाधुओं से परिवृत आचार्यश्री के साथ मुनिचर्या के अनुसार विहार करते हुए अन्य स्थान को चला गया। [६०१-६०२]
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