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उपमिति भव-प्रपंच कथा
किसी विघ्न के शिवालय में पहुँचने का प्रबल कारण बनता है । अतएव हे भद्र ! यदि इस मठ में जाने की तुम्हें बुद्धि हुई है, अभिलाषा है तो तुझे इस चित्त रूपी बन्दर के बच्चे की सुरक्षा करने का सुदृढ़ प्रयत्न करना चाहिये । यह बन्दर का बच्चा लम्बे समय से चक्र ( भ्रमावर्त) में पड़ा है, इसमें से इसका बाहर निकलना अत्यन्त कठिन है |
यह कैसे चक्र के चक्कर में पड़ा, यह भी बताता हूँ :- ऊपर बताये गये चूहे, बिल्ली आदि के प्रत्यधिक उपद्रवों से पीड़ित होकर, मोह के वश में यह बच्चा आम्रफल की भ्रांति से विषवृक्ष के फल खाने दौड़ता है, जिससे धूल की मोटी परत इसके शरीर पर जम जाती है । फिर भोग-स्नेह-जल से भीगने पर शरीर क्षत-विक्षत हो जाता है । फिर चूहे आदि उसको खाने की इच्छा से उस पर अधिक संख्या में अधिक तीव्रता से आक्रमण करते हैं । जैसे-जैसे यह अधिक पीड़ित होता है वैसे-वैसे शान्ति प्राप्त करने के लिये वह श्राम्र वृक्ष की तरफ दौड़ता है । फलस्वरूप और अधिक धूल चिपकती है, अधिक भीगता है, शरीर अधिकाधिक क्षत-विक्षत र जर्जरित होता है । हे भद्र ! यों इस चक्र ( आवर्त ) में पड़ने के बाद बार-बार उपद्रव बढ़ते जाते हैं । ऐसे दूषित चक्र ( प्रावर्त) में पड़ने के बाद जब तक तू स्वयं इसकी रक्षा नहीं करेगा, तब तक यह विघ्न रहित नहीं हो सकता । अतः हे नरश्रेष्ठ ! जैसा मैंने ऊपर बताया है, तदनुसार निरन्तर इसकी सुरक्षा करनी चाहिये, तभी यह चित्त रूपी बन्दर का बच्चा विघ्नरहित हो सकेगा । [४४६-४५४ ]
मैं गुरुजी की वार्ता का भावार्थ समझ गया । अतः उस पर चिन्तन करते हुए मेरे मन में निम्न सत्य प्रस्फुटित हुआ
रागादि से उपद्रव प्राप्त चित्त इन्द्रियों के विषयों में प्रवृत्ति करता है, जिससे इसका कर्मसंचय बढ़ता जाता है । * भोग-स्नेह की वासना उसके साथ एकीभूत होती रहती है, जिससे संसार सम्बन्धी संस्कार उत्पन्न होते हैं । ये संस्कार ही वह क्षत-विक्षत अवस्था है । इन संस्कारों से ही चूहे बिल्ली आदि के समान ये रागादि उपद्रव तीव्र होते हैं । ये उपद्रव प्रतिक्षरण बढ़ते रहते हैं जिससे प्रेरित यह चित्त बारबार विषयों की तरफ दौड़ता है तथा बार-बार कर्म बांधता है जो अधिक चिकने होते जाते हैं । चिकनाहट के कारण उपद्रव अधिक बढ़ते हैं । इस प्रकार यह चित्त ऐसे चक्र ( प्रावर्त) में पड़ जाता है जिसका तल कहीं दिखाई नहीं देता । इस चक्र में इसको करोड़ों प्रकार के दुःख होते हैं जिससे यह छूट नहीं सकता । इसकी रक्षा का उपाय स्ववीर्य रूपी हाथ द्वारा अप्रमाद दण्ड का उपयोग बताया है । अतः मुझे अब गुरुजी के उपदेशानुसार अप्रमादी बनकर उसका पूर्णतया अनुशीलन करना चाहिये । [४५५-४६२]
कारण यह है कि यह शरीर, सम्पत्ति, भोग, सगे-सम्बन्धी आदि सभी बाह्य पदार्थ स्वप्न समान हैं, इन्द्रजाल हैं, गंधर्व नगर हैं । सद्बुद्धि द्वारा ऐसा निर्णय कर,
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