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________________ २६० उपमिति-भव-प्रपंच कथा समय यह अनेक प्रकार के कुविकल्प रूपी मकड़ियों के जालों से जिसका मुह छिप गया है ऐसी अति भीषण आर्तध्यान रूपी गहन गुफा में छिप जाता है। तुझे अप्रमत्त भाव से सर्वदा इस बन्दर के बच्चे को अग्निकुण्ड में या गहन गुफा में जाने से रक्षण करना चाहिये। ___ मैंने पूछा--भगवन् ! इसको अग्नि-कुण्ड या गुफा में जाने से रोकने का उपाय क्या है ? तब गरु महाराज ने कहा-भाई ! काया नामक कमरे के पांच गवाक्ष (द्वार) हैं, उनके बाहर ही पांच विषय नामक विषवृक्ष हैं जो अति भयंकर हैं। इनकी गंध मात्र से * बन्दर के बच्चे को मुर्छा आने लगती है। इनको देखने से वह चपल बन जाता है और श्रवण मात्र से वह मरने लगता है। फिर स्पर्श करने और खाने से तो उसका विनाश हो इसमें आश्चर्य ही क्या ? पहले कहे गये चूहे आदि के उपद्रव बन्दर के बच्चे को इतना अधिक त्रस्त कर देते हैं कि वह व्याकुल होकर इन विषवृक्षों को आम्रवृक्ष मानने लगता है और प्रसन्नता पूर्वक इन विषवृक्षों पर आसक्त हो जाता है । पहले बताये गये पांच द्वारों से बाहर निकल कर वह अत्यन्त अभिलाषापूर्वक इन वृक्षों की तरफ दौड़ता है। वह इनके कुछ फलों को अच्छा समझ कर उन पर लुब्ध हो जाता है और कुछ फलों को खराब मानकर उनसे द्वेष करता है। इन वृक्षों पर अत्यन्त आसक्ति पूर्वक डाल-डाल पर घूमता है। वृक्षों के नीचे अर्थनिचय/विषयरज नामक सूखे पत्ते फल-फूल, आदि कचरा जमा हुआ होता है, उस पर वह बार-बार लोटता है और भोगस्नेह रूपी बरसाती जल-बिन्दुओं से गीला होकर कर्म-परमाणु-निचय अर्थात् वृक्ष के फल-फूल परागरूपी इस कर्मपरमाणु रज/धूल को अपने शरीर पर चिपका लेता है। भावार्थ गुरु महाराज द्वारा कही गयी उपरोक्त वार्ता का भावार्थ मेरी समझ में आ गया था, अतः मैंने विचार किया कि सामान्यतः शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ये पांच विष वृक्ष प्रतीत होते हैं । अस्पष्ट दिखाई देने वाले इनके फूल और अधिक स्पष्ट दिखाई देने वाले विशेष 'आविर्भाव' इसके फल प्रतीत होते हैं। विषयों की आधारभूत वस्तुएं इसकी शाखायें प्रतीत होती हैं । चित्तरूपी बन्दर के बच्चे का इन डालियों पर घूमना उपचार से ही समझना चाहिये, क्योंकि लोग प्रायः ऐसा कहते हैं कि 'अभी मेरा मन अमक स्थान पर गया ।' गुरुजी की बात भली-भांति मेरी समझ में आ रही थी, अतः आगे भी समझ में पायेगी ही, ऐसा सोचकर मैंने वार्ता को आगे चलाने का अनुरोध किया। गुरु महाराज ने आगे कहा-भद्र ! भोग-स्नेह-जल से जब इस बन्दर के बच्चे का शरीर गीला होता है और वह कर्मपरमाणुनिचय नामक रज में लोटता है, * पृष्ठ ६४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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