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________________ प्रस्ताव ७ : चार व्यापारियों की कथा २४५ परिग्रह-त्याग, ब्रह्मचर्य, सन्तोष, प्रशम आदि गुण-रत्नों को प्रतिपल एकत्रित करते रहते हैं। वे सद्गुरु, सुसाधु और स्वधर्मी भाइयों को अपनी तरफ आकर्षित करते हैं। वे सद्गुणों से अपनी आत्मा रूपी जहाज को परिपूर्ण करते हैं और वास्तव में आत्महित साधन का कार्य निष्पादन करते हैं। __जैसे योग्य ने रत्नद्वीप में जाकर रत्नों के गुण-दोषों का परीक्षण किया, रत्न खरीदने के लिए छोटा-सा व्यापार भी किया, किंतु उद्यानों में घूमने-फिरने के मौज-शौक के चक्कर में अपना अधिकांश समय नष्ट किया। फलस्वरूप रत्नद्वीप में अधिक समय तक रहने पर भी वह विशिष्ट रत्नों का सञ्चय नहीं कर सका । वैसे ही हे भद्र घनवाहन ! योग्य के समान सुन्दरतर (मध्यम) जीवों में भव्यता तो होती है, पर वे धीरे-धीरे मनुष्य भव प्राप्त करते हैं। वे लघुकर्मी होने से गुण-अवगुण की परीक्षा कर सकते हैं और सर्वज्ञ-दर्शन को प्राप्त कर श्रावक के योग्य कुछ-कुछ गुणरत्नों (अणुव्रतों) को ग्रहण करने का व्यापार करते हैं । वे दुर्जेय लोभ को नहीं जीत सकते । उनकी इन्द्रियाँ अधिक चपल होती हैं, अतः वे धन और इन्द्रिय-विषयों में बार-बार आकर्षित होते रहते हैं। धन और विषयों पर ममत्व होने के कारण* उनका बहुत-सा समय व्यर्थ चला जाता है और बहुत थोड़े समय के लिए वे रत्नव्यापार कर पाते हैं। जो रत्न एकत्रित करते हैं वे भी श्रावक के योग्य साधारण कीमत के अणुव्रत रूपी गुणव्रत इकट्ठे कर पाते हैं। वे साधुधर्म से प्राप्त होने वाले महामूल्यवान गुण-रत्नों (महाव्रतों) को एकत्रित नहीं कर पाते । ___ जैसे हितज्ञ रत्नद्वीप पहँच कर भी स्वयं रत्न-परीक्षक न होने के कारण, दूसरों से शिक्षण/उपदेश प्राप्त करके भी रत्न ग्रहण करने की ओर ध्यान नहीं दे सका और मौज-शौक में ही समय नष्ट करता रहा। धर्तों को पहचान नहीं सका। फलस्वरूप चमकते हुए काच के टुकड़ों को अमूल्य रत्न समझ कर संग्रह करता रहा और चारु के उपदेश से पूर्व स्वयं को छलता रहा । वैसे ही हे भद्र धनवाहन ! हितज्ञ के समान सुन्दर (सामान्य) जीवों में भी भव्यता तो होती है, पर उन्हें मनुष्य जन्म की प्राप्ति बहुत कठिनाई से होती है। किंचित् गुरुकर्मी होने से उन्हें धर्म के गुण-दोषों की परीक्षा नहीं होती। वे दूसरों के उपदेश की अपेक्षा रखते हैं। इन्द्रिय-विषयों और धन में अत्यन्त लुब्ध होने से वे सर्वज्ञ-प्ररूपित विशुद्ध धर्मरत्न को प्राप्त करने में असमर्थ रहते हैं। कुतीथिकों द्वारा बिछाये जाल और उनकी ठग-विद्या को वे नहीं समझ पाते । शांति, दया, इन्द्रिय-निग्रह आदि अमूल्य रत्नों को वे मूल्यहीन मानते हैं। अपने दम्भ-प्रधान अज्ञान के कारण बाहर से चमकते हुए नकली रत्न जैसे कुधर्म के अनुष्ठानों को धर्म-बुद्धि से करते हैं और उन्हीं को सुन्दर तथा लाभदायक मानते हैं। चारु जैसे सद्गुरु के उपदेश के पहले वे सचमुच अपने आप को ठगते रहते हैं। * पृष्ठ ६३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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