________________
२४४
उपमिति-भव-प्रपंच कथा
समुद्र का आदि-अन्त नहीं दिखाई देता वैसे ही संसार के विस्तार का भी कोई आदि-अन्त दिखाई नहीं देता। .
इस संसार-समुद्र में मनुष्य जन्म की प्राप्ति रत्नद्वीप में पहुँचने के समान है। बाग-बगीचों में घूमने का कुतूहल पाँचों इन्द्रियों के विषयों को भोगने की अभिलाषा के समान है। सर्वज्ञ प्ररूपित विशुद्ध धर्म के विपरीत प्रवृत्ति करने वाले कुधर्मों को शंख, कोड़िये और काँच के टुकड़ों के समान समझना चाहिये । रत्नद्वीप के धूर्तों के समान ही संसार में कुधर्म का प्रचार करने वाले कुतीर्थियों को समझना चाहिये । जीव के स्वरूप को जहाज और मोक्ष को स्वदेश आगमन/स्वस्थानगमन के समान समझना चाहिये; क्योंकि वही प्रात्मा का वास्तविक स्वस्थान है।* मुढ पर क्रोधित होने वाले राजा को स्वकर्मपरिणाम राजा समझ और उसे समुद्र में फेंकने को संसार का अनन्त भव-भ्रमण समझ ।
भाई धनवाहन ! यदि तू उपर्युक्त उपमाओं को ध्यान में रखकर पुनः इस कथा पर विचार करेगा तो तुझे इसका गूढार्थ समझ में आ जायेगा । फिर भी तुझे विशेष रूप से समझाने के लिये मैं विस्तार से इसका स्पष्टीकरण करता हूँ, सुन-[३८५]
जिस प्रकार चारु वसंतपुर नगर से निकल कर समुद्र को पार कर रत्नद्वीप पहुँचा । यहाँ आकर कृत्रिम और अकृत्रिम रत्नों की पहचान की। बाग-बगीचों में जाकर मौज-शौक में समय बर्बाद नहीं किया। धूर्त लोगों को पहचान गया। बनावटी रत्नों का क्रय नहीं किया। विशिष्ट और महर्घ्य रत्नों को क्रय करने का व्यापार किया। अल्प समय में ही अमूल्य रत्नों का संग्रह किया । रत्नद्वीप के विशिष्ट लोगों में अपना स्थान बनाया। अपने जहाज को रत्नों से भर लिया और अपने स्वार्थ प्रयोजन को सिद्ध किया वैसे ही चारु की भांति इस संसार में जो सुंदरतम भव्य जीव हैं वे असंव्यवहार जीव राशि में से निकल कर इस विस्तृत अनन्त संसार-समुद्र को पार कर रत्नद्वीप जैसे मनुष्य भव को प्राप्त करते हैं। मनुष्य जन्म में लघुकर्मी होकर रत्न परीक्षक के समान वे त्याज्य और ग्रहणीय को जानते हैं। ऐसे प्राणी विचार करते हैं कि मनुष्य जन्म प्राप्त करना अति दुर्लभ है । यह मनुष्य जन्म सचमुच रत्नों की खान है। सत्य, अनन्त सुख और निर्वाण प्राप्ति का यह साधन है। मनुष्य जन्म जैसे उत्तम स्थान को प्राप्त कर विष से भी भयंकर फलों को प्रदान करने वाले इन्द्रिय-विषय रूपी मौज-शौक में उसे खोना अयोग्य है। ऐसे सुन्दरतम प्राणी सर्वज्ञ प्ररूपित धर्म-मार्ग को बिना किसी के उपदेश के स्वयं प्राप्त कर लेते हैं । वे कुतीथिक रूपी ठगों से नहीं ठगे जाते । कुधर्म ग्रहण नहीं करते और स्वयं परीक्षा कर सच्चे रत्न रूपी साधु-धर्म रूपी अमूल्य रत्नों का ही व्यापार करते हैं । वे सर्वदा क्षमा, नम्रता, सरलता निर्लोभता, तप, संयम, सत्य, शौच, मूर्खात्याग/
* पृष्ठ ६३४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org