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उपमिति भव-प्रपंच कथा
अधिक समय तक सुखोपभोग कर फिर जब इच्छा होगी तब स्वदेश लौट जायेंगे । मैंने भी अपना जहाज माल से भर लिया है ।
फिर मूढ ने अपने जहाज में भरा हुआ माल चारु को दिखाया । चारु ने देखा कि मूढ ने अपने जहाज में सिर्फ कौड़ियें, शंख और कांच के टुकड़े भर रखे हैं । यह देखकर प्रशस्त मन वाला चारु सोचने लगा कि यह बेचारा मूढ तो सचमुच मूर्ख ही है । यहाँ आकर यह मौज-शौक में मग्न हो गया है और इसके अज्ञान का लाभ उठाकर धूर्तों ने इसको अच्छी तरह ठग लिया है । यदि अब भी यह सावधान हो जाय तो अच्छा है, अतः व्यापार के सच्चे मार्ग की जानकारी हेतु इसको शिक्षा प्रदान करूं ।
यह सोचकर श्रेष्ठ बुद्धि वाले चारु ने कहा - मित्र बाग-बगीचों में घूमना और चित्र देखना हमारे योग्य नहीं है । हम यहाँ रत्नों का व्यापार करने आये हैं, उसमें यह मौज-शौक तो विघ्नकारक है । यह तो अपने आप को ठगना है । मित्र ! मुझे लगता है कि पापी धूर्तों ने तुझे अच्छी तरह ठगा है । जो चमकते काच के टुकड़े हैं, उन्हें रत्न कह कर तुझे बेच दिया है । भाई ! ये सब कचरा तूने खरीद लिया है, व्यर्थ की वस्तुएं तूने खरीद ली हैं, इनसे तुझे कोई लाभ नहीं होगा । अतः अब तू इन्हें छोड़ और मूल्यवान सच्चे रत्न एकत्रित कर । रत्नों की पहचान मैं तुझे बताता हूँ । [३५६-३६९]
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चारु मूढ को रत्नों की परीक्षा बताने को उद्यत हुआ तभी मूढ एकाएक आवेश में आ गया और बोला - जाओ ! मुझे तुम्हारे साथ नहीं आना है । तुम जिस काम में लगे हो उसी को करते रहो । मित्र ! तू तो वैसा का वैसा ही रहा । यहाँ आकर भी वैसी ही बातें करता है । मैं यहाँ छैल-छबीला बन कर घूम रहा हूँ तो तू मेरा तिरस्कार कर रहा है और चला है मुझे रत्न परीक्षा बताने । जैसे मुझे रत्नों की परीक्षा प्राती ही न हो । मेरे रत्न - संचय को कचरा बता रहा है । भले ही मेरे रत्नों में चमक कम हो, पर मुझे तेरे बताये रत्न नहीं चाहिये । [३७०-३७३ ] चारु ने मूढ के उपर्युक्त कथन का उत्तर देने के लिए जैसे ही मुंह * खोला वैसे ही मूढ फिर बोलने लगा - मित्र ! मुझे न तो तेरे रत्न चाहिए और न ही तेरे जैसे रत्न चाहिए। मेरा काम उनके बिना भी चल जायगा । मुझे तुम्हारी सलाह, शिक्षा या उपदेश की किंचित् भी आवश्यकता नहीं है । चुपचाप अपना रास्ता नापो । यह सुनकर चारु ने अपने मन में विचार किया कि इस मूढ को शिक्षा देने का कोई उपाय मुझे तो नहीं सूझता; क्योंकि यह मेरी तो बात ही नहीं सुनता और अपनी ही ढपली बजाये जा रहा है । [ ३७४-३७६]
इधर योग्य और हितज्ञ ने चारु के उपदेश के अनुसार कार्य किया और अल्प समय में उन दोनों ने भी अपने जहाज मूल्यवान् रत्नों से भर लिये । चारु
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