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प्रस्ताव ७ : चार व्यापारियों की कथा
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भिन्न-भिन्न उपायों से लोगों को आकर्षित कर प्रतिदिन नये-नये रत्न एकत्रित करता रहता था। इस दृढ़ निश्चयी नरोत्तम ने अल्प समय में ही अपना पूरा जहाज मूल्यवान रत्नों से भर लिया, क्योंकि वह स्वयं रत्नों के गुण-दोषों का परीक्षक था । उसे उद्यान आदि में इधर-उधर घूम-फिर कर व्यर्थ समय गंवाने में रुचि नहीं थी। हे भद्र ! रत्न-परीक्षा (ज्ञान) और सदाचार पालन (चारित्र) द्वारा चारु ने रत्नद्वीप में रहकर अपने लक्ष्य को प्राप्त किया, अपना स्वार्थ सिद्ध किया ।*
[३१३-३१७] __ चारु का दूसरा मित्र योग्य था। इसने भी रत्नद्वीप में रत्न एकत्रित करने की इच्छा से व्यापार प्रारम्भ किया, किन्तु वह उद्यान आदि में घूम-घूम कर अपना कुतूहल भी शान्त करता था । रत्नों के गुण-दोषों के परीक्षण का ज्ञाता तो था, किन्तु घूमने आदि में उसकी शक्ति का ह्रास अधिक होता था। वह प्रतिदिन वन, उद्यान, सरोवर आदि पर घूमने जाता था जिससे उसका बहुत सा समय व्यर्थ चला जाता था । चारु के उपालम्भ के भय से वह अन्तःकरण के आदर बिना बेगार की तरह से कभी-कभी थोड़े रत्न एकत्रित करता था। वहाँ बहुत समय तक रहने पर भी उसने थोड़े से अच्छे माराक ही खरीदे थे और अधिकांश समय घूमने-फिरने में ही बिता दिया था। वह रत्नद्वीप में गया तो व्यापार करने था और इतने दिनों में बहुत सा व्यापार कर सकता था किन्तु अपने मौज-शौक के कारण उसने अपना अधिकांश समय व्यर्थ गंवा दिया। थोड़े लाभ के लिये उसने अधिक समय व्यतीत किया। [३१८-३२३]
चारु का तीसरा मित्र हितज्ञ था । इसे रत्नों की परीक्षा का ज्ञान ही नहीं था। दूसरों के संकेत निर्देश पर ही वह रत्नों को पहचानता था। फिर इसे उद्यान प्रादि में घूमने का, चित्रादि देखने का अत्यधिक कुतूहल था जिससे रत्न-व्यापार में बाधा आती थी । आलस्य और शौक के कारण वह मन लगाकर रत्नों का व्यापार नहीं कर पाता था। जब उसका व्यापार करने का थोड़ा मन होता तो धूर्त लोग शंख, कांच के टुकड़े, कौड़ियें आदि ऊपर से चमकीली मामूली वस्तुएं उसे रत्न के स्थान पर बेच देते । उसे रत्नों की परीक्षा न होने से वह ठगा जाता और मामूली वस्तुओं को भी रत्न समझ कर खरीद लेता। इस प्रकार हितज्ञ रत्नद्वीप पाकर भी प्रमाद और कुतूहल में पड़कर अपने स्वार्थ को सिद्ध करने में असमर्थ रहा ।
[३२४-३२८] चारु का चौथा मूढ नामक मित्र तो रत्नों के परीक्षण ज्ञान से पूर्णतया अनभिज्ञ था । अन्य लोगों द्वारा रत्नों के गुण-दोष समझाने पर भी वह मोहग्रस्त मूर्ख उन्हें स्वीकार नहीं करता था। फिर उसे कमलों के उद्यानों में, वन-खण्डों में, बगीचों में घूमने, चित्र देखने और देवमन्दिरों की शोभा देखने में अधिक रस आता था; जिससे इन्हीं कामों में उसका अधिकांश समय व्यतीत हो जाता था और • पृष्ठ ६३०
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