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________________ प्रस्तावना होने से पहले शरीर से कुछ न्यून होती है, जैसे ५०० धनुष की प्रवगाहना वाले जो सिद्ध होंगे, उनकी अवगाहना ३३३ धनुष और ३२ अंगुल होगी । ' इस प्रकार जैन दर्शन ने मुक्त जीव का जो स्वरूप चित्रित किया है कि, वह किस प्रकार बन्ध से मुक्त होता है ? इस सम्बन्ध में आचार्य सिद्धर्षि गरणी ने अपनी 'उपमिति भव-प्रपंच कथा' में मुक्त जीव के स्वरूप का भी सांगोपांग निरूपण किया है । जीव, जगत् श्रौर परमात्मा की गुरु- गम्भीर ग्रन्थियां कथा के द्वारा इस प्रकार सुलझाई गई हैं कि पाठक पढ़ते-पढ़ते श्रानन्द से झूमने लगता है ! उस दार्शनिक और नीरस विषय को लेखक ने अपनी महान प्रतिभा से सरस, सरल और सुबोध बना दिया है । वस्तुत: आचार्य सिद्धर्षि की प्रतिभा अद्वितीय है, अनुपम है । उनकी प्रताप पूर्ण प्रतिभा को यह ग्रन्थ रत्न सदा सर्वदा उजागर करता रहेगा । ८७ सिद्धर्षि : जीवनवृत्त सिद्धर्षि, भीनमाल के सुप्रसिद्ध धनपति शुभंकर का 'सिद्ध' नामक पुत्र था, यह कुछ विद्वानों की राय है । कुछ विद्वानों की दृष्टि से, श्रीमालपुर में कोई धनी जैन सेठ, चातुर्मास के प्रसङ्ग में, देवदर्शन के लिए जा रहा था । उसे नाली में पड़ा हुआ 'सिद्ध' नाम का राजपुत्र मिला था । इसे, जुए में हारते-हारते, कुछ साथी जुप्रारियों का रुपया उधार करना पड़ा था, जिसे न देने की वजह से, निर्दयतापूर्वक मार-पीट करके नाली में गिरा दिया था । सेठ ने उन जुप्रारियों को देय धन दिया, और सिद्ध को उठा कर अपने घर लिवा ले प्राया | पढ़ा लिखा कर, उसका विवाह किया और अपना सारा कार्य भार उसे सौंप दिया । व्यापार सम्बन्धी बही-खातों आदि को लिखने में, उसे प्रायः काफी रात गये, घर आना सम्भव हो पाता था । जिससे उसकी पत्नी अनमनी-सी और उदास रहती हुई काफी कमजोर हो चली थी । जो विद्वान्, 'सिद्ध' को शुभंकर सेठ का पुत्र मानते हैं, उनकी दृष्टि से, शुभंकर ने ही इसे पढ़ा-लिखा कर योग्य बनाया था । और, इसका विवाह 'धन्या' नाम की कन्या से कर दिया था । 1 सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए, एक दिन, सिद्ध के मित्र, उसे किसी बाग में ले गये । वहाँ उसे जुआ खेलने बैठा लिया, जिसमें वह हार गया। दूसरे दिन, वह फिर जुआ खेला और हारा। गुस्से में आकर, वह तीसरे दिन भी जुप्रा खेलने गया तो उसकी जीत हो गई। इस हार-जीत के आकर्षण और उत्सुकता ने, उसे ४. (क) द्रव्यसंग्रह, टीका, गाथा १४ (ख) तिलोयपत्ति ९ / १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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