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________________ उपमिति-भव-प्रपंच कथा भारतीय दार्शनिक चिन्तकों का यह अभिमत है कि मोक्ष में दुःख का पूर्ण अभाव है, पर न्याय, वैशेषिक, प्रभाकर, सांख्य और बौद्ध दार्शनिक यह भी मानते हैं कि जिस तरह मोक्ष में दुःख का अभाव है, वैसे ही मोक्ष में सुख का भी अभाव है। पर, कुमारिल भट्ट जो वेदान्त दर्शन के एक जाने-माने हुए मूर्धन्य मनीषी दार्शनिक रहे हैं, उन्होंने और जैन दार्शनिकों ने मोक्ष में प्रात्मीय अतीन्द्रिय सुख का उच्छेद नहीं माना है। जैन दार्शनिकों ने सुख को दो भागों में विभक्त किया है-एक इन्द्रियज सुख और दूसरा आत्मज सुख । मोक्षावस्था में इन्द्रिय और शरीर का अभाव होने से, उसमें इन्द्रियज सुख का अभाव होता है, पर, आत्मजन्य सुख का प्रभाव नहीं है। मुक्त जीव क्या सर्वलोक-व्यापी हैं ? इस प्रश्न का चिन्तन करते हुए जैन मनीषियों ने लिखा है कि मुक्त जीव सर्वव्यापी नहीं हैं, क्योंकि सांसारिक जीव में जो संकोच और विस्तार होता है, उसका कारण शरीर नामकर्म है। पर, मोक्ष अवस्था में शरीर नामकर्म का पूर्ण प्रभाव होता है, इसलिये प्रात्मा सर्वलोकव्यापी नहीं है, क्योंकि कारण के अभाव में कार्य नहीं हो सकता । यहाँ पर यह भी सहज जिज्ञासा हो सकती है कि एक दीपक को ढक दिया जाय तो उसका प्रकाश सीमित हो जाता है, पर उसका प्रावरण हटते ही उसका प्रकाश सर्वत्र फैल जाता है, वैसे ही शरीर नामकर्म का अभाव होने से सिद्धों की आत्मा सम्पूर्ण लोकाकाश में फैल जानी चाहिये। उत्तर में जैन दार्शनिकों ने कहा--दीपक के प्रकाश का विस्तार स्वतः है ही, वह तो प्रावरण के कारण सीमित क्षेत्र में है, पर, आत्म-प्रदेशों का विकसित होना अपना स्वभाव नहीं है। जो विकसित होते हैं, वे भी सहेतुक हैं । अत: मुक्त जीव लोकाकाश प्रमारण व्याप्त नहीं होता । सूखी मिट्टी के बर्तन की भांति मुक्त आत्मा में कर्मों के अभाव के कारण संकोच और विस्तार नहीं होता है । मुक्तात्मा का आकार मुक्त शरीर से कुछ कम होता है। कारण कि चर्म शरीर के नाक, कान, नाखुन आदि कुछ ऐसे पोले अंग होते हैं, जहाँ यात्म-प्रदेश नहीं होते । मुक्तात्मा छिद्ररहित १. दुःखात्यन्तसमुच्छेदे सति प्रागात्मवर्तितः । सुखस्य मनसा मुक्तिमुक्तिरुक्ता कुमारिलैः ।। -भारतीय दर्शन : डॉ० बलदेव उपाध्याय, पृ० ६१२ २. (क) स्याद्वादमंजरी, कारिका १; ८, पृष्ठ ६०, प्राचार्य मल्लिषेण (ख) षट्दर्शन-समुच्चय, पृष्ठ २८८ ३. (क) सर्वार्थसिद्धि. १०/४. पृ. ३६० (ख) तत्त्वार्थसार, ८/९-१६ ४. (क) द्रव्यसंग्रह टीका, गा. १४; ५१, पृष्ठ ३६ (ग्व) परमात्मप्रकाश टीका गा. ५४ पृ. ५२ ५. तत्त्वानुशासन २३२-२३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
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