SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1014
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५. भव-मठ मैं अकलंक के साथ चौथे साधु के पास गया। वन्दन कर हम नीचे बैठे तब मुझे प्रतिबोधित करने के लिये अकलंक ने भाग्यशाली मुनि से वैराग्य का कारण पूछा । [२३४] मूनि बोले-भद्र प्रकलंक ! विभिन्न रूपों वाले हम सभी चट्टा (परिव्राजक) एक बड़े मठ में प्रानन्द पूर्वक रहते थे । वहाँ हमारे भक्तों का एक परिवार पाया। इस परिवार में वैसे तो अनेक मनुष्य थे, पर परिवार का संचालन करने वाले मुख्य पाँच व्यक्ति थे। उन्होंने हमारे साथ ऐसा व्यवहार किया जिससे वे हमें अपने हितेच्छू लगे । हे सौम्य ! वास्तव में तो यह परिवार हमारा शत्रु था, पर हमें ऐसा लगने लगा मानों हमारा प्रेमी हो। इस परिवार ने विद्यार्थियों को आदरपूर्वक विविध प्रकार का भोजन कराया। नये-नये भोजन के लोलुप विद्यार्थियों ने परिवार के आन्तरिक भाव से अनभिज्ञ रहकर डटकर भोजन किया, ठूस-ठूस कर पेट भरा। इस परिवार ने मन्त्रित भोजन बनाया था जिससे उस अतिदारुण अन्न को खाते ही कई परिव्राजक-बटुकों को तुरन्त सन्निपात हो गया और कुछ को अपच होकर उन्माद हो गया । इस भोजन से विद्यार्थियों का गला अवरुद्ध हो गया,* जीभ पर कांटे-कांटे हो गये, श्वास नली गर्र-गर्र बोलने लगी, वे विह्वल हो गये और ऐसा लगने लगा मानो उनकी चेतना नष्ट हो गई हो । कुछ छात्रों का ज्वर की पीड़ा से शरीर जलने लगा, कुछ को सर्दी लगने लगी और कई चेतना-शून्य होकर जमीन पर लोटने लगे। सन्निपात की तीव्रता से पीड़ित होकर वे कभी चिल्लाते तो कभी तड़फड़ाते, कभी उनके मुख से भाग निकलते । इस प्रकार मठ के वे छात्र शोचनीय दशा को प्राप्त हो गये । उस भोजन से जो मठ के परिव्राजक और बटुक उन्मादग्रस्त हो गये थे वे पापी देव, गुरु और संघ की निन्दा करने लगे, विपरीत बोलने लगे, और निकृष्ट चेष्टायें करने लगे। जिनकी चेतना ही लुप्त हो गई हो, उनकी कौनसी चेष्टा अच्छी हो सकती है ? कुछ इस भोजन के दोष से पशु के समान अधर्मी बने या उसके विष से मूर्ख जैसे हो गये । [२३५-२४६] यहाँ सामने जो स्वाध्याय-ध्यानमग्न पवित्रात्मा मनिपुंगव बैठे हैं, वे विशुद्ध वैद्यकशास्त्र के परम ज्ञाता हैं । हे भद्र । एक बार मैं मूढात्मा जब मठ के परिव्राजकों के मध्य में सन्निपात-ग्रस्त होकर भटक रहा था तब इन महापुरुष ने मुझे देखा । इनको मुझ पर करुणा आई और इन्होंने अपनी औषधि के प्रयोग से मेरा सन्निपात - पृष्ठ ६२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001725
Book TitleUpmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorVinaysagar
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1985
Total Pages1222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy