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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
वहाँ कूए से निकले जल को ग्रहण करने वाली 'अज्ञान-मलिन अात्मा' नामक बड़ी नाली थी। पास ही जल-संचित करने के लिये मिथ्याभिमान नामक सुदृढ़ कुण्डी थी, जिसमें से संक्लिष्ट-चित्तता नामक छोटी नाली और भोग-लोलुपता नामक अति लम्बी पतली नाली निकल रही थी। यह नाली जन्म-सन्तान नामक खेत और अलग-अलग जन्म रूपी क्यारियों की सिंचाई करती थी, जिनमें कर्मप्रकृति नामक बीज बोया जाता था और तज्जीवपरिणाम नामक व्यक्ति यह बुआई कर रहा था । फलस्वरूप सुख-दुःख आदि धान्य-समूह उत्पन्न होता था। इस सब का कारण तो यह अरहट्ट यन्त्र ही माना जाता था। वहाँ सतत उत्साही असद्बोध नामक सिंचाई करने वाला सर्वदा तैयार ही रहता था जिसे महामोह राजा ने इसी कार्य के लिये नियुक्त कर रखा था। [२१६-२२१] .
भद्र अकलंक ! ऐसी निखिल सामग्री से परिपूर्ण सतत भ्रमोत्पादक * संसार अरहट्ट यन्त्र पर मैं लम्बे समय तक सोता हुआ पड़ा रहा। देखो, सामने ये भाग्यशाली मुनिराज जो ध्यानमग्न हैं, जो मेरे गुरु कहलाते हैं, उन्हें मुझ पर दया आई । उन्होंने मुझे वहाँ सोया देखा, मेरी समस्त चेतना को गाढ मूछित देखा, तब बहुत प्रयत्न पूर्वक इन्होंने मुझे प्रतिबोधित किया, जागृत किया। यह भव अरहट्ट कैसा है ? इसके यथास्थित रूप का विस्तृत वर्णन किया और कहाअरे मूर्ख ! इस पूरे यंत्र का स्वामी तू ही है, इसके फल को भोगने वाला भी निःसंदेह रूप से तू ही है, फिर तू स्वयं क्यों इस भव-अरहट्ट को नहीं जानता ? भाई ! बराबर समझ, तू अनन्त दु:ख भोग रहा है, भूतकाल में भोगे हैं और भविष्य में भोगेगा । इसका कारण यह भव अरहट्ट ही है यह बात संशय रहित है, अतः तू इसका त्याग कर दे।
___मार्गदर्शन कराने वाले इन परोपकारी महात्मा से मैंने पूछा-मैं इस भव अरहट्ट का त्याग कैसे करू ?
महात्मा ने बताया-हे महासत्वशाली ! तू दीक्षा ग्रहण कर । जो उत्तम प्राणी भाव से भागवती दीक्षा ग्रहण करते हैं, उनके सम्बन्ध में यह भव-अरहट्ट अपने आप ही हीन और नष्ट प्रायः हो जाता है । [२२२-२२६]
मेरे गुरु के उपरोक्त वचन सुनकर मैंने उन्हें भावपूर्वक स्वीकार किया और मैंने दीक्षा ले ली । हे सौम्य ! मेरे वैराग्य का यही कारण है । [२३०]
मुनि महाराज के वचन सुनकर अकलंक बोला-भगवन् । आपको वैराग्य का कारण तो बहुत अच्छा मिला । ऐसा कौन समझदार व्यक्ति होगा जिसे इस संसार-अरहट्ट चक्र को देख/समझ कर भी संसार से विरक्ति न हो ?
इन मुनि महाराज को भक्ति पूर्वक वन्दन कर अकलक और मैं अन्य मुनि महाराज के पास चले गये । [२३१-२३३]
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