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________________ ९ : ३६ में भास्करनन्दि उनके दृष्टिकोणसे सहमत हैं, इस आलोचनात्मक टिप्पणीके साथ कि यह चौथी और पांचवीं अवस्थामें विद्यमान मनुष्यको केवल आलंकारिक दृष्टिसे ही प्राप्त होता है। हमारे १६वें पद्यमें, यह कहा गया है कि यह तीन गुणस्थानोंमें, ५वीं से ७वीं तक विद्यमानोंको ही मुख्यतया प्राप्त होता है, और चौथी अवस्थाका अन्तर्वेशन केवल एक संकेत मात्र है। सर्वज्ञ आत्माकी स्थितिका वर्णन, जो कि समुच्छिन्न. क्रिया-निवर्तकमें, अथवा हमारे २१वें पदमें शुक्लध्यानको अन्तिम स्थिति में, सुदृढ़ अविचल मेरु पर्वतसे मिलता हुआ किया गया है, उनकी 'वृत्ति' ९ : ४४ में भी प्रकट होता है । जिनभद्रके ध्यानशतकके श्लोक ७६ और ८२ ऐसा ही वर्णन करते हैं, जो उत्तराध्ययनचूणि २९:७२ इत्यादिमें भी प्राप्त होता है । हमारे श्लोक २२ और २३ में, समुच्छिन्नक्रिया केवल 'अयोगकेवली' को ही प्राप्त कही गयी है। यह भी कहा गया है कि सिर्फ आलंकारिक अर्थ में ही यह 'सयोगकेवली' को प्राप्त होती है, जो कि उनकी तत्त्वार्थवृत्ति ९:३६में श्रुतसागर द्वारा भी अनुमोदित की गयी है। यह दृष्टिकोण हमारे ग्रन्थकी 'वृत्ति' में प्रकट नहीं होता। .. हमारे श्लोक १३ और १४ धर्म्य अथवा उत्तम गुणोंकी व्याख्या करते हैं जो चार प्रकारोंमें धर्म्यध्यानके अभ्यासके लिए अपेक्षित हैं। श्लोक १३के उत्तरार्ध में दो प्रकारोंको और श्लोक १४के पूर्वार्धमें शेष दो प्रकारोंको पढ़कर हम इन लक्षणोंको अनावश्यकतासे उलझनमें पड़ जाते हैं। 'ध्यानशतक'के ३१-३४ श्लोक चार प्रकारकी भावनाका अथवा धर्म्यध्यानके लिए पूर्वापेक्षित अभ्यासका वर्णन करते हैं, जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वैराग्य है। हमारे १४वें श्लोकका पूर्वार्ध उनसे तुलनायोग्य चार प्रकारके गुणोंका नाम गिनाता है, वे हैं, सद्वृष्टि, ज्ञान, वृत्ति, और मोह-क्षोभ-विवर्जित । उत्तम गुणोंके ये चार विभाग 'तत्त्व' और मुक्तिके ज्ञानको आवश्यकताके योगसे, और 'तत्त्वार्थसूत्र' ९:६में वणित दशधर्मोके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001724
Book TitleDhyanastav
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorSuzuko Ohira
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1973
Total Pages140
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Dhyan, & Religion
File Size6 MB
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