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विषयोंकी विविधताओंपर या किसी ऐसे विषयपर प्रमुख रूपसे स्थिर हो जाता है, जो भ्रान्त विचारका द्योतक है, तब वह ध्यान नहीं रह जाता। जब तक विचार अथवा चिन्तनकी स्थिरताको यहाँ प्राप्त नहीं किया जाता, तब तक इसका कोई भी औचित्य एक अति-अनुमानशीलता और विसंगति बन जायेगा। ऐसा कहा जाता है कि आत्माका अपनी आत्मामें विलयन ही ध्यानकी परिभाषा है। लेकिन इसे भी महत्त्व नहीं दिया गया है, क्योंकि विचारका निग्रह ही मुख्य विषय माना गया है। इस (बौद्ध) मतका भी, कि और कुछ नहीं केवल किसी भी विचारका अभाव ध्यान है, अथवा और कुछ नहीं बल्कि केवल विचार ही ध्यान है, निराकरण कर दिया गया है। क्योंकि अगर ध्यानको प्रकृतिको सिर्फ इस रूपमें स्वीकार किया जाता है कि वह तर्कसंगत ज्ञानके असद्भावके अलावा और कुछ नहीं है जो कि मनुष्यकी सहज प्रकृति है, या वह सब विचारोंका अस्वीकार है, तब, हर तरह से, वही शून्यता मोक्षपर भी लागू कर दी जायेगी। प्रतिपक्षी वाद-विवाद करते हैं, "योगावस्था जिसमें मन विषयातीत हो जाता है, अन्तिम आनन्दका कारण है ( पतञ्जलिका योगसूत्र 1. 3 & 18 )। इसलिए, इस अवस्थामें आत्माका निवास अपनी. सर्वोत्तीर्ण प्रकृतिमें बताया गया है। यही अवस्था सच्ची अन्तिम मुक्ति है, अथवा यही अवस्था वास्तवमें ध्यान है ।" नहीं, आपकी धारणा विरोधात्मक है, क्योंकि आत्माको, जिसे सब तरहसे अपनी पारम्परिक अद्वैत प्रकृतिके द्वारा वणित किया गया है द्वैत प्रकृतिके द्वारा युगपत् लक्षित करना सर्वथा असंगत है । ( उदाहरणार्थ, मुक्तावस्थामें आत्माको चैतन्य गुणधर्मसे मण्डित किया जाता है, लेकिन ध्यानावस्थामें सांसारिक आत्माको द्वैत प्रकृति द्वारा लक्षित किया जाता है, जो कि चैतन्य और अचैतन्य है )। जैनोंका विचार है कि आत्मा बहुमुखी प्रकृति द्वारा परिवर्तित होती है, इसलिए ध्यानके बारेमें जैन सिद्धान्तकी प्रामाणिकता सुप्रतिष्ठित हैक्योंकि अविकम्पित चिन्तन द्वारा लक्षित आत्माको ही स्फुट तौरसे
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