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जीव भी इसी स्वभावके कहे गये हैं, वृत्तिमें जिनका संकेत किया गया है, लेकिन स्पष्ट नहीं किया गया। इनका द्विधा रूप 'द्रव्यसंग्रह'में बहुत विशद रूपसे प्रकाशित किया गया है, जो उनके काव्यके आधार रूपमें स्वीकृत है।
'तत्त्वार्थसूत्र'पर उनकी वृत्ति पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि, अकलंककी 'राजवातिक' और विद्यानन्दिकी श्लोकवातिककी टीकाओंका अनुकरण करती है। वास्तवमें यह उनका सामान्य संक्षेप ही है। उनके मूल वाक्य बिना किसी हेर-फेरके उनकी वृत्तिमें बारम्बार उद्धृत किये गये हैं । यहाँ तक कि मूल सूत्रोंकी कोई नयी अथवा मौलिक व्याख्या तक प्रस्तुत करनेका वे कोई प्रयास नहीं करते, बल्कि इन पूर्ववर्ती विद्वानोंकी पारम्परिक विचारधाराको ही अपने सीधे-सादे शब्दों और शैलीमें, खासतौरसे साधारण विद्यार्थियोंके लिए, प्रकट करनेका प्रयत्न करते हैं। तत्त्वार्थसूत्र ९ : २७ पर उनकी टीका, जो ध्यानकी व्याख्याको प्रस्तुत करती है, उनकी शैलीका एक अच्छा उदाहरण है, जिसमें इस सूत्रकी परम्परानिष्ठ प्रतिपत्तियोंका उनके अपने शब्दों और उक्तियों में संक्षेपमें पुनर्लेखन किया गया है। मैं एक उदाहरण देती हूँ :
"९:२७ उत्तम-संहननस्यैकाग्र-चिन्ता-निरोधो ध्यान आन्तर्-मुहूर्तात् ।"
विचारका एक बिन्दु ( अथवा विषय ) पर संयमन ध्यान है, जो एक व्यक्तिके लिए अन्तर्-मुहूर्तपर टिक जाता है, जिसका संहनन उत्तम है।
-एकस्मिन्-अग्रे ( एक ही बिन्दुपर ) अथवा प्रमुख विषयपर, जैसे आत्मापर या अन्यत्र, चिन्ता-निरोध या विचारका एक स्थानपर केन्द्रित होना और अन्य मानसिक क्रियाओंको दूर रखना, एकाग्र-चिन्तानिरोध है । 'यह ध्यान है, इस प्रकार वर्णन करते हुए, ध्यानकी प्रकृति और इसके उद्देश्य सीमित कर दिये गये हैं। इसी प्रकार, जब किसीका चिन्तन
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