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॥ कल्याणकलिका. खं० २॥
॥ प्रस्ताबना ॥
प्रतिष्ठानो शब्दार्थजे वस्तुना निरूपणमां आटला बधा ग्रन्थो रचाया छे, अनो जेना विधानमा हजारो अने लाखो रुपिया जैन संघ खर्च करे छे ते 'प्रतिष्ठा' नो अर्थ आपणे समजी लेवो जोइये.
'निर्वाणकलिका' नामक प्रतिष्ठापद्धतिना कर्ता श्रीपादलिप्तसूरिजी निर्वाणकलिकामा प्रतिष्ठा शब्दनो अर्थ नीचे प्रमाणे लखे छे"तत्र स्थाप्यस्य जिनबिम्बादेर्भद्रपीठादौ विधिना न्यसनं प्रतिष्ठा ।" अर्थात 'स्थापनीय जिनप्रतिमा आदिनुं योग्य आसने विधिपूर्वक स्थापन कर, ते 'प्रतिष्ठा' छे. आचार दिनकरना कर्ता श्रीवर्धमानसूरि प्रतिष्ठानुं लक्षण जुदा प्रकारे आपे छे, जे नीचे प्रमाणे छे. "प्रतिष्ठा नाम देहिनां वस्तुनश्च प्राधान्य-मान्य(ता) हेतुकं कर्म ।" अर्थात् 'शरीरधारी तथा अन्य वस्तुने प्रधानता तथा मान्यता आपवाना हेतुथी कराता अनुष्ठाननाम 'प्रतिष्ठा' छे. अमे पोते प्रतिष्ठानुं लक्षण नीचे प्रमाणे बांधीये छीये:"सजीवे निर्जीवे वा विशिष्टवस्तुनि अनुष्ठानविशेषेण कलोत्पादन प्रतिष्ठा"
अर्थात् सजीव के निर्जीव एवा पदार्थ विशेषमा योग्य क्रियानुष्ठान द्वारा 'प्रभाव' उत्पन्न करवो ते 'प्रतिष्ठा' तरीके आलेखे छे अने दिनकरकारना लक्षणवाली प्रतिष्ठानो आजे सर्वसाधारण 'अंजनशलाका' ए नामथी व्यवहार करे छे.
२ प्राचीन अने अर्वाचिन प्रतिष्ठाओनी तुलनाकोइ पण विधिविधान प्राथमिक अवस्थामा जेटलुं सीधुं अने सरल होय छे तेटलुंज ते लांबा काले जटिल अने दुर्बोध बनी जाय
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