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________________ |"इति शान्तिवादिवेतालिये" आ शब्दोनी साथे करवानो एज मतलब छे. ॥ कल्याण विक्रमना छठाथी पंदरमा सैका सुधीनां हजार वर्षमा दशेक शांतिसूरिनां नामो उपलब्ध थयां छे तेमां अमारी मान्यतानुसार आ ॥ प्रस्ताकलिका. वादिवेताल शान्तिसूरि सर्व प्रथम होइ शके, माथुरी तथा वालभी वाचनाओना समन्वय निमित्ते वलभीमा मलेली बन्ने वाचनानुयायी वना ॥ खं० २ ॥ श्रमणसंघोनी सभामां एक गंधर्व वादिवेताल शांतिसूरि उपस्थित हता जेमणे वालभ्य संघना प्रमुख श्री कालकाचार्यनी संघ कार्यमां सहायता करी हती अने बंने वाचनानुगत आगमोनो समन्वय करायो हतो, अमारी मान्यता प्रमाणे ते गंधर्व वादिवेताल अने अभिषेक विधिकारवादिवेताल शांतिसूरि अभिन्न होवा जोइये, केटलाक विद्वानो उत्तराध्ययननी पाइयटीकाकार शांतिसूरिने 'वादिवेताल' माने छे जे बराबर नथी. पाइयटीकाकार शांतिसूरि थारापद्रगच्छीय हता अने ते अग्यारमा सैकाना विद्वान हता अने वादिवेताल शांतिसूरिधी अर्वाचीन हता. जिनस्नात्रविधि अने अर्हदभिषेक विधिनी समकालीनताश्रीजैन साहित्य विकासमंडल तरफथी जेना प्रकाशननी जाहेरात थइ हती ते 'जिनस्नात्रविधि' नी वादिवेतालीय अभिषेक विधिनी साथे तुलना करी जोतां जणायु के उक्त बंने विधिओ एक बीजीनी असरथी मुक्त छ, वादिवेताले 'स्नात्रविधि' के स्नात्रविधिकार आचार्यश्री जीवदेवे 'अभिषेकविधि' जोइ होत तो तेनी थोडी पण असर एक बीजानी कृतिमां आव्या विना रहेत नहिं आधी जणाय छे के उक्त बंने कृतिओ लगभग समकालीन होवी जोइये. अभिषेकविधिना मूलनी कोपा तथा अभिषेकविधिनी पंजिकानुं पुस्तक विद्वान मुनिवर्य श्रीपुण्यविजयजीना सौजन्यथी मलतां अमे कलिकामा ए विधि आपवा समर्थ थया छीये ए वातनो अमारे स्वीकार करवो जोइये. १४-चौदमा परिच्छेदमां बे अष्टोत्तरी पूजाओ छे, बास्तवमा बे अष्टोत्तरीओ जुदी नथी, पण सामानना न्यूनाधिक्यना कारणे बे | जुदी बतावी छे, ओगणीसमा सैकानी अष्टोत्तरीमा सत्तरमा सैकानी अष्टोत्तरी करतां केटली सामान वृद्धि थइ छे ए जाणवा अने थोडा || ॥६३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001723
Book TitleKalyan Kalika Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1986
Total Pages660
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Shilpvastu, & Muhurt
File Size11 MB
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