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॥ कल्याणकलिका. खं० २॥
॥ ध्वजदण्ड
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प्रतिष्ठा ॥
॥ ३९० ॥
पुसित-पुष्पावलिः कुरुतान्ने प्रतिष्ठाचायक करवू, पु
संघेऽत्र ये गुरुगुणौधनिधे सुवैया-वृत्त्यादिकृत्यकरणैकनिबद्धकक्षाः । ते शान्तये सह भवन्तु सुराः सुरीभि, सदृष्टयो निखिलविघ्नविघातदक्षाः ॥८॥ १ नवकार प्रकट कही नमुत्थुणं०, स्तवनने बदले लघुशान्ति कही, जयवीराय कहेवा.
अधिवासना - पछी श्रावके बन्ने हाथमां पुष्पांजलि लेइ -
अभिनवसुगन्धिविकसित-पुष्पौघभृता सुगन्धधूपाढ्या ।
दण्डोपरि निपतन्ती, सुखानि पुष्पांजलिः कुरुताम् ॥११॥ आ काव्य बोली ध्वजदण्ड उपर नाखवी अने चन्दन छांटवू, आ वखते प्रतिष्ठाचार्ये बे मध्यमा आंगलिओ उंची करी क्रूर दृष्टि करी तर्जनी मुद्रा देखाडवी, श्रावके डाबा हाथमां जल लेई दंड उपर आछोटq अने दण्डने तिलक करवू, पुप्पो चढावां, धूप उखेववो.
प्रतिष्ठागुरुए दण्डने मुद्गर मुद्रा देखाडवी अने - "ॐ ह्रीँ श्वी सर्वोपद्रवं रक्ष रक्ष स्वाहा ।"
आ मंत्रनो न्यास करी दण्डनी दृष्टिरक्षा करवी. श्रावके दण्ड उपर सप्त धान्यनो प्रक्षेप करी धान्य स्नान कराव. ए पछी दणडना१ सुवर्णजल, २ रत्नजल, ३ कषायजल, ४ मृत्तिका ५ मूलिका ६ अष्टवर्ग ७ सर्वोपधि ८ गन्ध ९ वास १० चन्दन ११ कुंकुम (केसर) १२ तीर्थजल १३ कर्पूरजल, आ १३ अभिषेक करवा. तेमां १-सुवर्णस्नात्र -सोनाना ४ कलशो जले भरीने अथला जलमां सुवर्ण चूर्ण नाखीने- “नमोऽर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः
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।। ३९० ।।
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