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॥ कल्याणकलिका.
खं० २ ॥
॥ ३३७ ॥
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इय सत्तिविहवसत्ताणुसारओ वण्णिया पइट्ठा उ । विहावाभावासत्तीए असढभावो इयं कुजा ||६८ || पुहइमयं पिहु अङ्गुट्ठ-मेत्तयं तणकुडाए विसुओ य । सुइभूओ जिणबिंबं, ठबिज्ज इमिणा बहाणे ||६९ || संसारविरागमणो, गरहानिन्दाजुगुच्छियप्पाणो । काऊण भावमंगल, पंचनमुक्काररूवं तु ॥७०॥ कासस्स य कुसुमेहिं, पुएइ उ सुरहिकुसुमवरहंम्मि । कारिज्ज पइट्टं परम-भत्तिबहुमाणसं ॥ ७१ ॥ कलसाईणमभावे, विरहे तह सेसमंगलाणं च । पञ्चनमुकारो चिय, भावोत्तममंगलं नियमा || ७२ || पज्जत्तमिणं णियमा, मायालोहेहिं विप्पमुक्कस्स । पञ्चनमुक्कारेणं, जं कीरइ मंगलाईयं ॥७३॥ सव्वत्थ भावमंगल-पंच नमोक्कारपुब्विया किरिया । कायव्वा जिणबिंबाण, सब्वभावेण सुपट्ठा ॥ ७४ ॥ मणिकयसुवन्नरीरी-पडिमं पाहाणणिम्मिए भुवणे । जो ठवइ भत्तिजुत्तो, तस्स दुहं नेव कइयावि || ७५ || इय सामन्नपइट्ठा, विहाणमेयं समासओ भणियं । इद्धिं भणिमो लिप्पाइयाण अचलाण परिमाणं ॥ ७६ ॥ अवियाणिऊण य विहिं जिणबिम्बं जो ठवेइ मूढमणो । अहिमाणलोहजुत्तो, निवडइ संसारजलहिम्मि ॥७७॥
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॥ श्री पाद
लिप्तसूरि
प्रणीतः प्रतिष्ठाविधिः ॥
।। ३३७ ।।
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