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| श्री पाद
|| कल्याणकलिका. खं०२॥
लिप्तसूरिप्रणीतः
॥ ३२५ ॥
प्रतिष्ठाविधिः॥
मंगलदीवो कराववो. _ पछी आचार्ये चतुर्विध श्रमण संघ सहित देववंदनमा नन्दीनी ३ स्तुतिओ कह्या पछी सिद्धाणं बुद्धाणं. कही श्री प्रतिष्ठादेवतायै | | करेभि काउस्सग्गं, अन्नत्थ. १ लोगस्ससागरवरगंभीरा सुधीनो काउसग्ग करी, पारी, नमोर्हत् कही -
“यदधिष्टिताः प्रतिष्ठाः सर्वाः, सर्वास्पदेषु नन्दन्ति । श्री जिनबिम्बं सा विशतु, देवता सुप्रतिष्ठमिदम् ॥१॥" ए स्तुति कहीने श्री प्रवचनदेवतायै करेमि का० अन्नत्थ. १ नव० काउ० नमोऽर्हत्. कही - "जइ सग्गे पायाले, अहवा खीरोदहिम्मि कमलवणे । भयवइ करेहि संति, सन्निझं सयलसंघस्स ॥१॥" आ स्तुति कहेवी. पछी श्री सिद्धायिकायै करेमि काउ० अन्नत्थ० १ नव० काउ० नमोऽर्हत्. कहीने - "अट्ठविहकम्मरहियं, जा वंदइ जिणवरं पयत्तेण । संघस्स हरउ दरिअं, सिद्धा सिद्धाइया देवी ॥१॥" ए स्तुति कही खित्तदेवयाए करेमि काउ० अन्नत्थ० १ नव० नमोऽर्हत्. कही - “जीसे खित्ते साहू दंसणनाणेहिं चरणसहिएहिं । साहिति मुक्खमग्गं, सा देवी हरउ दुरियाई ॥१॥" स्तुति कहेवी. पछी भवनदेवयाए करेमि काउ० अन्नत्थ. १ नव० नमोऽर्हत् कही - "ज्ञानादिगुणयुतानां, नित्यं स्वाध्याय संयमरतानाम् । विदधातु भवनदेवी, शिवं सदा सर्वसाधूनाम् ॥१॥"
आ स्तुति कही, उपर नवकार संपूर्ण कही बेसी नमुत्थुणं, जावंति चेइयाइं । जावंत केवि साहू कहीने नमोऽर्हत्पूर्वक स्तवनना स्थाने 'अजितशांतिस्तव' कही जयवीराय कहेवा.
पछी आचार्ये वासमिश्र अक्षतनी अने इन्द्रादिक संघजनोए पुष्प-गन्धादिमिश्र सातधान्यनी अंजलिओ भरी उभा थइ नीचेनी |
सा
॥ ३२५ ।।
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