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| श्री पाद
॥ कल्याणकलिका. खं० २॥
लिप्तसूरिप्रणीतः
॥ २९३
प्रतिष्ठाविधिः ॥
आचार्य श्री पादलिप्तसूरिना मते वेदियो- स्वरूप उपर जणाव्या प्रमाणे छे, पाछलना प्रतिष्ठा कल्पोमां वेदियोनुं माप अने स्वरूप | जुदा प्रकार- पण जोवाय छे. तेनुं कारण प्रतिष्ठा मंडपर्नु रूपान्तर थर्बु ए छे. पादलिप्तसूरिजीए प्रतिष्ठामंडपने 'अधिवासनामंडप' कह्यो | छे, एनो अर्थज ए छे के ते मण्डप अधिवासना अने प्रतिष्ठानी खास क्रियाओने माटे ज बनावातो, तेमा प्रतिष्ठाकारक आचार्य, शिल्पी अने इन्द्रादिक ४ स्नात्रकारो ज जता अने प्रतिष्ठा संबन्धि कार्यविधि करता-करावता. प्रतिष्ठा मंडपना मुख द्वार आगल प्रेक्षको माटे जुदो सभामंडप बांधवामां आवतो, कालान्तरे आ चतुर्मुख प्रतिष्ठामण्डपर्ने स्थान आजकालमां बनता एक दिशापरक त्रिद्वार अने पंचद्वार | मण्डपोए लीधुं, समचोरसने बदले लम्बचोरस अने मापमा उक्त उत्कृष्ट मापथी पण अधिक मापवाला प्रतिष्ठामंडपो बनवा लाग्या. अने क्रियाकारको अने दर्शकोनो एक ज मंडपमा समावेश थवा मांड्यो. ए ज कारणथी वेदिओ पण मध्यभाग छोडीने सामेनी भीतनी पासे पहोंची गइ अने पोतानुं समचोरस रूप छोडीने लम्बचोरस थवा मांडी. आ स्वरूपपरिवर्तन 'अंजनप्रतिष्ठा' अने 'स्थापनप्रतिष्ठा' नो भेद भूलाबाथी थयुं छे. स्थापनाप्रतिष्ठाने माटे मंडप अने वेदीनुं आ परिवर्तितस्वरूप भले स्वीकार्य होय पण 'अंजनशलाका प्रतिष्ठा' ना प्रसंगे तो मंडप अने वेदी शास्त्रोक्त रीतथी ज बनाववी जोइये.
वेदीनां उपादान द्रव्यो वेदी कया उपादानोथी बनाववी ? ए विषे श्री पादलिप्तसूरिजीए कंइपण सूचन कयुं नथी, छतां पाछलना विधिग्रंथोमां वेदी शुद्ध जल अने शुद्ध माटीथी बनावेली काची इंटोनी बनाववाना उल्लेखो मले छे, तेथी वेदी शुद्ध रीते बनावेली काची इंटोनी ज बनाववी जोइये.
. वेदीना खूणाओमां रोपवानी खीलिओ -
॥ २९३ ॥
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