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॥ कल्याणकलिका. खं०२॥
॥ अष्टोत्तर शत स्नात्र
विधि ।
॥ २२३
जिनतनु चरचता सकल नाकी, कहे कुग्रह उष्णता आज थाकी । सफल अनिमेषता आज माकी, भव्यता अमतणी आज पाकी ॥३॥ इति चन्दन पूजा ॥२॥ जगधणी पूजता विविध फूले, सुरवरा ते गणे खिण अमूले । खंत धरी मानवा जिनप पूजे, तसतणा पापसंताप धूजे ॥४॥ इति फल पूजा ।।३।। जिनगृहे वासतो धूपपूरे, मिच्छत्त दुर्गन्धता जाय दूरे । धूप जिम सहज उरध गति स्वभावे, कारका उंच गति भाव पावे ॥५॥ इति धूप पूजा ॥४॥ जे जना दीपमाला प्रकाशे, तेहथी तिमिर अज्ञान नाशे । निज घट ज्ञान ज्योति विकाशे, जेहथी जगतना भाव भासे ॥६॥ इति दीप पूजा ॥५॥ स्वस्तिक पूरतां जिनप आगे, स्वचेतसि भद्र कल्याण जागे । जन्म जरा मरणथी अशुभ भागे, नियत शिव इम रहे तास आगे ॥७॥ इति अक्षत पूजा ॥६॥ ढोकतां भोग परभाव त्यागे, भविजना निज गुण भोग मागे। हम भणी हमतणुं सरूप भुंजे, आपज्यो तातजी जगत पूजे ॥८॥ इति नैवेद्य पूजा ॥७।। फल भरे पूजतां जगतस्वामी, मनुज गति वेल होई सफल पामी । . सकल मुनि ध्येय गति भेद रंगे, ध्यावतां फल समापत्ति संगे ॥९॥ इति फल पूजा ॥८॥
॥ २२३ ॥
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