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________________ -― ( ल० ) ७. तथा 'अल्पभवता' व्याख्याङ्गं, प्रदीर्घतरसंसारिणस्तत्त्वज्ञानायोगात् । तत्र 'अल्प':- पुलपरावर्त्तादारतो, 'भवः' संसारो यस्य तद्भावः अल्पभवता । न हि दीर्घदौर्गत्यभाक् चिन्तामणिरत्नावाप्तिहेतुः एवमेव नानेकपुद्गलपरावर्त्तभाजो व्याख्याङ्गमिति समयसारविदः । अत: साकल्यत एतेषां व्याख्यासिद्धिः, तस्याः सम्यग्ज्ञानहेतुत्वादिति सूक्ष्माधियाऽऽलोचनीयमेतत् । (प०-)' चिन्तामणिरत्नावाप्तिहेतु' रिति, चिन्तामणिरेवरलं मणिजातिप्रधानत्वाच्चिन्तामणिरत्नं, चिन्तामणिरत्रे, तस्य तयोर्वाऽवासिहेतुः ; अभाग्य इति कृत्वा । पृथग्वा ७. अल्पभवता व्याख्या का सातवाँ अङ्ग है 'अल्पभवता' । अल्पका अर्थ है पुद्गलपरावर्त नामक कालके भीतर; और भवका अर्थ है संसार । अल्प है संसार जिसका, ऐसा पुरुष यह 'अल्पभव' शब्द का अर्थ हुआ । अल्पभवता याने अल्पसंसारिता यह उसकी विशेषता हुई । अर्थात् जो अन्तिम (चरम ) पुद्गलपरावर्तकालमें आ चुका है वही व्याख्या ग्रहणके योग्य है। कारण यह है कि अति दीर्घ संसारकालवाले जीवको तत्त्वज्ञान नहीं हो सकता। जिस प्रकार दीर्घदुर्भागी, अपना भाग्य न होनेसे मणियोंमें श्रेष्ठ ऐसे चिन्तामणि रत्नकी या अन्य मणिकी प्राप्तिमें हेतुभूत नहीं बन सकता, इसी प्रकार अनेक पुद्गलपरावर्त काल तक जिन्हें अभी संसार - परिभ्रमण करनेका बाकी है' व्याख्याके अङ्ग नहीं बन सकते यह शास्त्रकार भगवंतो का मन्तव्य है। (पुद्गलपरावर्त काल उसे कहते हैं जिसमें एक जीव समस्त चौदह राजलोकके सभी असंख्य आकाश प्रदेशोंमें क्रमशः प्रत्येक प्रदेशको मृत्युसे स्पर्श करें। यह काल भी विराट काल है जिसमें अनंत कालचक्र व्यतीत होते है। इससे भी अधिक कालतक संसारमें जिसका पर्यटन अवशिष्ट है, उसे व्याख्या पढानेमें कोई लाभ नहीं ।) उपरोक्त सातों व्याख्या- अङ्गों के समुदाय मिलने पर ही व्याख्याकी सिद्धि हो सकती है । व्याख्याका अवकाश वहां ही बन सकता है। क्योंकि व्याख्यासे उन्हीं जीवोंको सम्यग्ज्ञान हो सकता है। इस तत्त्व पर सूक्ष्म बुद्धिसे पर्यालोचन करना योग्य है । अब ललितविस्तराकार सूत्रके प्रत्येक पदकी व्याख्याका प्रारम्भ करते हैं। Jain Education International ३८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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