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________________ (ल० - ग्रन्थकारान्तिमाभिलाष:-) आचार्यहरिभद्रेण दृब्धा सन्न्यायसंगता । चैत्यवन्दनसूत्रस्य वृत्तिललितविस्तरा ॥ १ ॥ य एनां भावयत्युच्चैर्मध्यस्थेनान्तरात्मना । स वन्दनां सबीजं वा नियमादधिगच्छति ॥ २ ॥ पराभिप्रायमज्ञात्वा तत्कृतस्य न वस्तुनः । गुणदोषौ सता वाच्यौ प्रश्न एव तु युज्यते ॥ ३ ॥ प्रष्टव्योऽन्यः परीक्षार्थमात्मनो वा परस्य वा । ज्ञानस्य वाभिवृद्ध्यर्थं त्यागार्थं संशयस्य वा ॥४॥ कृत्वा यदर्जितं पुण्यं ★ मयैनां शुभभावतः । तेनास्तु सर्वसत्त्वानां मात्सर्यविरहः परः ॥ ५ ॥ (*प्र० ... मयैनां श्रुतभावतः) इति ललितविस्तरानाम चैत्यवन्दन (प्र० .. वन्दना) वृत्तिः समाप्ता । कृतिर्द्धर्मतो याकिनीमहत्तरासूनोराचार्यहरिभद्रस्येति । (ग्रन्थाग्रं १५४५, पञ्जिकाग्रन्थः २१५५, उभयोर्मीलने ३७०० श्लोकमानम्) न लाया जाय । ऐसे ही उसका अर्थ-व्याख्यान भी लेशमात्र उपेक्षणीय-अवगणनीय नहीं है; क्यों कि जैसे चिन्तामणिरत्न के भी गुण सम्यग् रूप से अवगत हो तभी उस पर अत्यन्त श्रद्धा हो अविधिरहित उपासना के द्वारा • महाफलसिद्धि होती है, उसी प्रकार चैत्यवन्दन का सम्यग् अर्थबोध होने पर ही उस पर अतिशयित श्रद्धा हो उसके अनुष्ठान द्वारा महाकल्याण की सिद्धि होती है। इतनी चर्चा पर्याप्त है। ग्रन्थकार की अन्तिम अभिलाषा : अब यहां ललितविस्तराकार महर्षि आचार्य भगवान श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराज ग्रन्थ-समाप्ति में कहते है कि : ___ (१) रचयिता :- चैत्यवन्दनसूत्र की ललितविस्तराकार नाम की समीचीन युक्ति-दृष्टान्तों से गर्भित विवेचना की रचना आचार्य हरिभद्र के द्वारा की गई। (२) विवेचनाप्रभाव :- जो (पुरुष) इस विवेचना का मध्यस्थ अन्तःकरण से चिंतन करता है, सो अवश्य वन्दन को या मोक्षमार्ग के बीज को प्राप्त करता है। (३) अविचारित गुण दोष कथन निषेध :- "अन्य का आशय सोचे बिना, उससे निर्मित वस्तु में गुण-दोष का उद्भावन सज्जन न करे । (इस ललितविस्तरा के संबन्ध में भी यही ध्यान रखें ।) हां, प्रभ उठाना अयोग्य नहीं। (४) प्रश्के हेतु :- ‘दूसरे के प्रति प्रभ इन चार कारण से कर सकते है, - १. अपने बोध की परीक्षा के लिए, २. सामने वाले के बोध की परीक्षा हेतु; ३. अपने ज्ञान की वृद्धि के निमित्त; अथवा ४. अपना संशय दूर करने के लिए। (५) ग्रन्थकरण पर अभिलाषा :- "यह विवेचना बना कर शुभ भाव से मैंने जो पुण्य कमाया, इससे सर्व जीवों का मात्सर्य सम्पूर्ण नष्ट हो जाय । इस प्रकार चैत्यवन्दन सूत्र की ललितविस्तरा नामक विवेचना समाप्त हुई। यह कृति याकिनी महत्तरा के धर्मपुत्र आचार्य हरिभद्र की है।" ३८३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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