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________________ (ल० - सुप्तमण्डितप्रबोधदर्शनादि - ) एवमतोऽपि विनिर्गततत्तद्दर्शनानुसारतः सर्वमिह योज्यं सुप्तमण्डितप्रबोधदर्शनादि । न ह्येवं प्रवर्तमानो नेष्टसाधक इति । भग्नोऽप्येतद्यनलिङ्गोऽपुनर्बन्धकः, इति तं प्रत्युपदेशसाफल्यम् । (पं० -) एवं' = प्रस्थकदृष्टान्तवद्, 'अतोऽपि' = जैनदर्शनादेव, 'विनिर्गतानि' = पृथग्भूतानि, 'तानि तानि', यानि 'दर्शनानि' = प्रवादाः (प्र० .... नयवादाः), तेषामनुसारतः = तत्रोक्तमित्यर्थः, 'सर्च' = दृष्टान्तजालम्, 'इह' दर्शने, 'योज्यम्', किंविशिष्टमित्याह ‘सुप्तमण्डितप्रबोधदर्शनादि', = यथा कस्यचित् सुप्तस्य सतो मण्डितस्य कुङ्कुमादिना, प्रबोधे = निद्रापगमे, अन्यथाभूतस्य सुन्दरस्य चात्मनो, दर्शनम् = अवलोकनम्, आश्चर्यकारि भवति, तथाऽपुनर्बन्धकस्यानाभोगवतो विचित्रगुणालङ्कृतस्य सम्यग्दर्शनादिलाभकाले विस्मयकारि आत्मनो दर्शनमिति । 'आदि'शब्दान्नावादिना सुप्तस्य सतः समुद्रोत्तीर्णस्य बोधेऽपि तीर्णदर्शनादि ग्राह्यमिति । दार्टान्तिकसिद्ध्यर्थमाह 'न' = नैव, 'हिः' = यस्माद्, ‘एवं' = प्रस्थककर्तृ (प्र० .... कर्त्तन) न्यायेन, 'प्रवर्तमानो'-ऽपुनर्बन्धको, 'न' = नैव, 'इष्टसाधकः' = प्रस्थकतुल्यसम्यक्त्वादिसाधकः, अपि तु साधक एवेति । अपुनर्बन्धकस्यैव लक्षणमाह 'भग्नोऽपि' = अपुनर्बन्धकोचितसमाचारात् कथंचित् च्युतोऽपि, 'एतद्यत्नलिङ्गः' = पुनः स्वोचिताचारप्रयत्नावसेयो, 'अपुनर्बन्धकः' = आदिधाम्मिकः, 'इति'। . से क्रमशः प्रकट होते आये हैं। मात्र उसे अपुनर्बन्धक अवस्था में पता नहीं था कि मुझ में सम्यग्दर्शन के गुणों का पूर्व रूप तय्यार हो रहा है' । बात तो सचमुच यही थी कि उत्तर काल के गुणों का निर्माण-प्रारम्भ पूर्व काल से ही चालू हो गया था; जैसे कि सम्यग्दर्शन काल के देवाधिदेव अर्हत्प्रभु के प्रति विशिष्ट रागगुण का निर्माणप्रारम्भ अपुनर्बन्धक काल में ही विद्यमान संसारापेक्षा निःसीम देव-ममत्व नाम के गुण से हो ही गया है। अब तो ममत्व का मात्र विषय ही बदलता है। सुप्तमण्डितप्रबोधदर्शन आदि में 'आदि' पद से दूसरे दृष्टान्त सुप्ततीर्णदर्शनादि ले सकते हैं। जैसे कि सोये हुए आदमी को नौका में लेकर समुद्र पार करा दिया; अब यहां जागृत होने पर उसे अपना पारदर्शन आश्चर्यकारी होता है, - 'मैं तो वहां था, यहां समुद्रपार कैसे आ गया!' निद्रा में समुद्रतरण की प्रवृत्ति जारी होने पर भी उसे पता नहीं था कि 'मैं समुद्र पार कर रहा हूँ;' लेकिन वस्तुस्थिति यही थी। ठीक इसी प्रकार अपुनर्बन्धक अवस्था में तत्त्वाविरुद्ध हृदय होने से, प्रवर्तमान देवप्रणामादि प्रवृत्ति, यह सत्य प्रवृत्ति की ही पूर्वभूमिका चालू हो गई है। प्रस्थक बनाने के दृष्टान्त से कहिए कि वह अपुनर्बन्धकादि भव्य जीव प्रस्थकतुल्य इष्ट सम्यक्त्वादि भाव को नहीं साध रहा है ऐसा नहीं, किन्तु साध ही रहा है। अपुनर्बन्धक अवस्था तक ऐसी अवस्था है कि किसी प्रकार कभी वह अपने उचित आचार से भ्रष्ट भी हुआ हो, तब भी अपुनर्बन्धक-योग्य आचार के सन्मुख प्रयत्न से जाना जाता है कि वह अपुनर्बन्धक है। __ ऐसे अपुनर्बन्धकादि के प्रति उपदेश करना सफळ होता है। कारण, उपदेश ग्रहण करने की इसमें योग्यता है; उपदेश पर वह श्रवण - मनन - परिणमन आदि इससे किया जाता है। विभिन्न-मान्य आदिधार्मिक : • कपिलमतानुयायी सांख्यदर्शन वाले कहते हैं कि 'सत्त्व-रजस्-तमस् त्रिगुणात्मक प्रकृति का पुरुष (आत्मा) पर से अधिकार उठ गये बिना ऐसे गुणसंपन्न और उपदेशमात्र आदिधार्मिक नहीं बन सकता है।' ३८१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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