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________________ (ल० - अपुनर्बन्धकप्रवृत्तिः सत्प्रवृत्तिः-) एवंभूतस्य या इह प्रवृत्तिः सा सर्वैव साध्वी । माग्र्गानुसारी ह्ययं नियमादपुनर्बन्धकादिः, तदन्यस्यैवंभूतगुणसम्पदोऽभावात् । अत आदितं आरभ्यास्य प्रवृत्तिः सत्प्रवृत्तिरेव नैगमानुसारेण चित्रापि प्रस्थकप्रवृत्तिकल्पा । तदेतदधिकृत्याहुः - 'कुठारादिप्रवृत्तिरपि रू पनिर्माणप्रवृत्तिरेव । तद्वदादिधार्मिकस्य धर्मे कात्स्न्येन तद्गामिनी, न तु तद्बाधिनीति हार्दाः । (पं०-) 'कुठारे'त्यादि, 'कुठारादिप्रवृत्तिरपि', कुठारादौ = प्रस्थकोचितदारुच्छेदोपयोगिनि शस्त्रे प्रवृत्तिः = घटन - दण्डसंयोग - निशातीकरणादिका, अपि, आस्तां प्रस्थकोत्किरणादिका, 'रू पनिर्माणप्रवृत्तिरेव' = प्रस्थकाद्याकारनिष्पत्तिव्यापार एव; उपकरणप्रवृत्तिमन्तरेण उपकर्त्तव्यप्रवृत्तेरयोगात् । तद्वत्' = कुठारादिप्रवृत्तिवद् रूपनिर्माणे, 'आदिधाम्मिकस्य' = अपुनर्बन्धकस्य, 'धर्मे' = धर्मविषये, या प्रवृत्तिः देवताप्रणामादिका सदोषापि सा, 'कात्स्न्र्येन' = सामस्त्येन, 'तद्गामिनी' = धर्मगामिनी, 'न तु' = न पुनः, 'तद्बाधिनी' = धर्मबाधिका, 'इति' = एवं, 'हार्दाः' = ऐदम्पर्यान्तगवेषिणः; आहुरिति शेषः । तीन करने चाहिए । (इससे तथाभव्यत्वादि का परिपाक हो, पाप प्रतिघात - गुणबीजाधान होता है।) • (३०) , मन्त्र देवताओं की पूजा करनी चाहिए। (मन्त्र - देवता के अचिन्त्य प्रभाव से समाधिवर्धक अनुकूलता होती है।) • (३१) सत् पुरुषों के सुन्दर आचरणों का बार बार श्रवण करना चाहिए। (इससे सत्कृत्यों की प्रेरणा एवं गुणानुमोदना लब्ध होती है।). (३२) उदारता से दिल भावित करने योग्य है। (इससे स्वभाव उदार बन जाए, तब वाणी, वर्तन, व्यवहार, उदार हो सर्वतोमुखी लाभ होता है). (३३) जीवनवर्तन उत्तम पुरुषों के दृष्टान्त अनुसार करना चाहिए । (इससे स्वयं उत्तमता एवं जगत में यश मिलता है।) इन तेत्तीस कर्तव्यों का संग्रह :१. आदिकर्म १२. सविधि धर्मप्रवृत्ति २४. प्रभुमूर्ति निर्माण २. अकल्याणमित्रत्याग १४. धैर्य २५. शास्त्रलेखन ३. कल्याणमित्रसंग १५. भावी-आलोचन २६. मंगलजप ४. औचित्य १६. मृत्यु-विचार २७. चतुः शरण ५. लोकापेक्षा १७. परलोक-दृष्टि २८. दुष्कृतगर्दा ६. गुरुवर्गसन्मान १८. गुरुजन-सेवा २९. शुभानुमोदन ७. गुरुवर्ग-पारतन्त्र्य १९. योगपट्ट-दर्शन ३०. मन्त्र-देवता पूजा .. ८. दानादि २०. चित्ते योगपट्ट स्थापन ३१. सत्कार्य-श्रवण ९. उदार भगवत्पूजा २१. धारणा-परीक्षण ३२. औदार्यभावन १०. साधु-अन्वेषण २२. विक्षेपत्याग ३३. उत्तम दृष्टान्तानुकरण। ११. सविधि धर्मश्रवण २३. योगसिद्धियत्न अपुनर्बन्धक की इतर देवादिप्रणाम-प्रवृति सत्प्रवृत्ति कैसे ? : इन तेत्तीस गुणों से जो संपन्न है उसकी यहां जो देवादि को प्रणाम आदि प्रवृत्ति हैं वे सभी सत्प्रवृत्ति हैं; कारण यह कि दुराग्रहरहित वह शुद्ध देवादि तत्त्व की उपासनाप्रवृत्ति की ओर प्रयाण कर रहा है, आगे जा कर वह शुद्ध देवादि की उपासना प्राप्त करेगा। - ३७८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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