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________________ Jain (ल० - द्वादशाङ्गवत्कैवल्यस्य कथं न बाधः ? ) कथं द्वादशाङ्गप्रतिषेध: ? तथाविधविग्र दोषात्; श्रेणिपरिणतौ तु कालगर्भवद् भावतो भावोऽविरुद्ध एव । लब्धियोग्यापि अकल्याणभाजनोपघाता ( प्र० ० नोपघातात्) नाभिलषितार्थसाधनायालमित्यत आह 'नाकल्याणभाजनं', तीर्थकरजननात् ; नातः परं कल्याणमस्ति । यत् एवमतः कथं नोत्तमधर्म्मसाधिका ? इति उत्तमधर्म्मसाधिकैव । अनेन तत्तत्कालापेक्षयैतावद्गुणसंपत्समन्वितैवोत्तमधर्म्मसाधिकेति विद्वांसः । केवलसाधकश्चायं, सति च केवले नियमान्मोक्षप्राप्तिरित्युक्तमानुषङ्गिकम् । तस्मान्नमस्कारः कार्य इति । (पं० –) — श्रेणी'त्यादि; 'श्रेणिपरिणतौ तु' = क्षपकश्रेणिपरिणामे पुनः वेदमोहनीयक्षयोत्तरकालं, 'कालगर्भवत्', काले प्रौढे ऋतुप्रवृत्त्युचिते उदरसत्त्व इव, 'भावतो' द्वादशाङ्गार्थोपयोगरूपात्, न तु शब्दतोऽपि 'भावः ' = सत्ता द्वादशाङ्गस्य, 'अविरुद्धो' = न दोषवान् । इदमत्र हृदयम्, -अस्ति हि स्त्रीणामपि प्रकृतयुक्तया केवलप्राप्तिः, शुक्लध्यानसाध्यं च तत्, 'ध्यानान्तरिकायां शुक्लध्यानाद्यभेदद्वयावसान उत्तरभेदद्वयानारम्भरूपायां वर्तमानस्य केवलमुत्पद्यते ' इति वचनप्रामाण्यात् । न च पूर्वगतमन्तरेण शुक्लध्यानाद्यभेदौ स्तः 'आद्ये पूर्वविदः' (तत्त्वार्थ० ९ - ३९) इतिवचनात्, 'दृष्टिवादश्च न स्त्रीणामि'तिवचनात्, अतस्तदर्थोपयोगरूपः क्षपक श्रेणिपरिणतौ स्त्रीणां द्वादशाङ्गभावः क्षयोपशमविशेषाददुष्ट इति । = = • क्रूर अध्यवसाय वाली न होती हुई भी अगर वह कामलंपट हो तब सुन्दर याने उत्तम धर्मसाधना के लिए योग्य नहीं; किन्तु स्त्रीमात्र में कामलंपटता ही होती है ऐसा नहीं, यह सूचित करने के लिए कहते हैं कि वह उपशान्तमोह हो ही नहीं सकती वैसा नहीं, क्यों कि किसी २ स्त्री का मोह शान्त हुआ भी देखते हैं। • उपशान्त मोह वाली भी अगर अशुद्ध आचार युक्त हो तब निन्द्य है, लेकिन ऐसा नहीं है यह 'नो न शुद्धाचारा' से सूचित किया जाता है; सभी स्त्री शुद्ध आचार वाली हो ही नहीं सकती ऐसा नहीं, कोई कोई स्त्री शुद्ध आचार वाली भी होती है। औचित्य पालन पूर्वक दूसरों को अपकार न करना, हानि न पहुँचाना, ऐसे शुद्ध आचार किसी किसी स्त्री में दिखाई पड़ते हैं । शुद्धाचार वाली भी अगर अशुद्ध देह वाली हो तब ठीक नहीं, अतः उसके निषेधार्थ कहते हैं कि सभी स्त्री अशुद्ध ही शरीर वाली होती है ऐसा नहीं है, क्यों कि कोई स्त्री पवित्र शरीर वाली भी होती है। देखते हैं कि पूर्व कर्म के अनुरोध से कांख, स्तन आदि प्रदेश में दुर्गन्धयुक्त पसीना वगैरह अशुद्धि से रहित भी स्त्री जगत में होती है । • शुद्ध शरीर वाली भी स्त्री अगर परलोकहितकारी प्रवृत्ति से रहित हो तब निन्द्य है, उत्तमधर्मसाधक नहीं; किन्तु सभी में ऐसा नहीं यह 'नो व्यवसायवज्जिता' शब्द से कहते हैं; कारण, कोई कोई स्त्री परलोक-व्यवसाय वाली भी दिखाई देती है, शास्त्र में स्त्रियों की परलोकहितार्थ प्रवृत्ति देखने में आती है। • परलोकव्यवसाय वाली होने पर भी स्त्रीभाव के साथ अगर सम्यक्त्वसाधक अपूर्वकरण का विरोध हो तब चारित्र स्वरूप उत्तम धर्म की साधना, केवलज्ञान एवं मोक्ष का भी विरोध ही है, लेकिन इस विरोध का प्रतिषेध करते हैं, – 'न अपूर्वकरणविरोधिनी, ' अर्थात् अपूर्वकरण का स्त्री- भाव के साथ कोई विरोध नहीं, क्यों कि स्त्री - जाति में भी अपूर्वकरण का सद्भाव शास्त्र में प्रतिपादित है । • यदि शङ्का हो कि अपूर्वकरण वाली भी स्त्री सम्यक्त्व याने चतुर्थ गुणस्थानक तो पा जाए किन्तु यदि वह ऊपर के नौ गुणस्थानक प्राप्त करने के लिए अयोग्य हो तब तेरहवा 'सयोगि केवली' नामक केवलज्ञान का गुणस्थानक भी नहीं प्राप्त कर सकती ! तब तो इष्ट मोक्ष सिद्धि के लिए भी कहां से समर्थ हो सके ? इसलिए इष्टसिद्धि हेतु कहते हैं कि वह नौ गुणस्थानकों से रहित ३५४ Shanivate & Personal Son ary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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