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________________ (ल० - 'जो देवाण वि० ...) इत्थं सामान्येन सर्वसिद्धनमस्कारं कृत्वा पुनरासनोपकारित्वाद् वर्तमानतीर्थाधिपतेः श्रीमन्महावीरवर्धमानस्वामिनः स्तुतिं कुर्वन्ति, - 'जो देवाण वि देवो' इत्यादि । ('जो देवाण वि देवो, जं देवा पंजली नमसंति । तं देवदेवमहियं सिरसा वंदे महावीरं ॥') अस्य व्याख्या :- 'यो' भगवान् वर्द्धमानः, 'देवानामपि' भवनवास्यादीनां, 'देवः' पूज्यत्वात्, - 'यं देवाः''प्राञ्जलयो नमस्यन्ति' = विनयरचितकरपुटाः सन्तः प्रणमन्ति, 'तं'देवदेवमहियं 'देवदेवाः शक्रादयः, तैर्महितः = पूजितः, 'सिरसा' = उत्तमाङ्गेनेत्यादरप्रदर्शनार्थमाह, 'वन्दे', कं? 'महावीरं' ईर गतिप्रेरणयोरित्यस्य विपूर्वस्य विशेषेण ईरयति कर्म गमयति, याति चेह शिवमिति वीरः, महांश्चासौ वीरश्च महावीरः । उक्तं च, - 'विदारयति यत्कर्म तपसा च विराजते । तपोवीर्येण युक्तश्च, तस्माद् वीर इति स्मृतः ।। १ ।।, तम् । समय तक ८४ - ८४, तीन समय तक ९६ -९६, दो समय तक १०२ - १०२ और एक समय में उत्कृष्टतः १०८ सिद्ध हो सकते हैं। बाद में अन्तर पड़ता है अर्थात् अनन्तर समय में कोई जीव सिद्ध नहीं होता है। प्र० - ये पंद्रह प्रकार के सिद्धों का समावेश तीर्थसिद्ध एवं अतीर्थसिद्ध इन दो भेदों में हो जाता है। यह इस प्रकार, - तीर्थकरसिद्ध तीर्थसिद्ध ही हैं, क्योंकि तीर्थ स्थापित होने के बाद ही सिद्ध होते हैं, और अतीर्थकरसिद्ध तीर्थसिद्ध या अतीर्थसिद्ध होते हैं । इस रीति से अन्य प्रकार भी इन दोनों में समाविष्ट ही है। तब दो ही प्रकार कहिए, पंद्रह क्यों कहे गए? यह क्या निरर्थक कथन नहीं ? उ० - सच है कि तीर्थसिद्ध - अतीर्थसिद्ध दो में अन्य प्रकार समाविष्ट हो जाते हैं, फिर भी मात्र इन दोनों से उत्तरोत्तर प्रकार का बोध नहीं हो सकता, इसलिए अज्ञात के ज्ञापनार्थ अन्य तेरह प्रकार बतलाए गए । अतः निरर्थक कथन जैसा कोई दोष नहीं है। __ इस प्रकार 'सिद्धाणं बुद्धाणं०' गाथा से सामान्य रूप से समस्त सिद्धों को नमस्कार कर फिर भी निकट के उपकारी होने से वर्तमान शासन के अधिपति श्री महावीर स्वामी की स्तुति पढ़ते हैं, - 'जो देवाण वि देवो, जं देवा पंजली नमसंति । तं देवदेवमहियं सिरसा वंदे महावीरं ॥' अर्थ :- जो देवों के भी (पूज्य) देव हैं, जिन्हें देवगण अंजलि लगा कर नमस्कार करते हैं, उन इन्द्रपूज्य महावीर स्वामि को मैं मस्तक से वंदना करता हूँ। इसकी व्याख्या :- 'जो' = जो, 'देवाण वि' = भवनपति आदि चारों निकाय के देवों के भी, 'देवो' = देव हैं, क्यों कि पूज्य हैं। और 'जं' = जिन्हें, 'देवा' = देवगण, 'पंजली नमसंति' = विनय से अञ्जलि - करसंपुट लगा कर प्रणाम करते हैं। 'तं' = उन, 'देवदेवमहियं' = शक्रेन्द्रादि से पूजित, महावीर' को 'सिरसा' = मस्तक से, 'वंदे' = वन्दना करता हूँ। वन्दन मस्तक से ही होता है, फिर भी यहां 'मस्तकसे' यह जो कहा वह भगवान के प्रति आदर प्रदर्शित करने के लिए कहा गया है। 'महावीर' शब्द का अर्थ इस प्रकार है, - महान् ऐसे जो वीर यह महावीर; 'वीर' शब्द 'वि' पूर्वक 'ईर्' धातु से बना है; वि + ईर् = वीर; 'ई' का अर्थ गति एवं प्रेरणा होता है, तब 'वीर' अर्थात् विशेष रूप से जो कर्म को निकाल देते है और मोक्ष में जाते हैं। कहा गया है कि, -- विदारयति यत्कर्म, तपसा च विराजते । तपोवीर्येण युक्तश्च तस्माद् वीर इति स्मृतः ॥१॥ __ - अर्थात् जिस कारण से कर्म का विदारण करते हैं, तप से विराजमान है, और तपोवीर्य से संपन्न है, इसलिए वह 'वीर' इस संज्ञा से स्मरण में आते हैं। महान ऐसे वीर, महावीर को मैं नमस्कार करता हूँ। ३४९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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