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________________ ___ (ल० - श्रुतवृद्धितोऽसङ्गेन मोक्षः-) यथोदितश्रुतधर्मवृद्धेर्मोक्षः, सिद्धत्वेन । नेह फले व्यभिचारः; असङ्गेन चैतत्फलं संवेद्यते । एवं च सद्भावारोपणात् तद्वृद्धिः। (पं० -) ननु कथमयं नियमो यदुतेदं प्रणिधानमनाशंसाभावबीजम् ? इत्याह यथोदितश्रुतधर्मवृद्धेः' = सर्वज्ञोपज्ञश्रुतधर्मप्रकर्षात् 'मोक्षः' अनाशंसारूपो यतो भवतीति गम्यते । अत्रापि कथमेकान्तः ? इत्याह 'सिद्धत्वेन' = श्रुतधर्मवृद्धर्मोक्षं प्रत्यवन्ध्यहेतुभावेन । इदमेव भावयति 'न' = नैव, 'इह' = मोक्षलक्षणे, 'फले"व्यभिचारो' = विसंवादः फलान्तरभावतो निष्फलतया वा श्रुतधर्मवृद्धेरिति । अस्यैवासङ्गत्वसिद्ध्यर्थमाह 'असङ्गेन च' = रागद्वेषमोहलक्षणसङ्गाभावेन च, 'एतत्' = मोक्षफलं, 'संवेद्यते' = सव्वैरेव मुमुक्षुभिः प्रतीयत इति । इत्थं श्रुतधर्मवृद्धः फलसिद्धिममिधाय, अस्या एव हेतुसिद्धिमाह ‘एवम्' = उक्त प्रकारेण, 'चः' पुनरर्थे भिन्नक्रमश्च, 'सद्भावारोपणात्' = श्रुतवृद्धिप्रार्थनारूपशुद्धपरिणामस्याङ्गीकरणात्, 'तबुद्धिः' च = श्रुतधर्मवृद्धिः पुनः, भवतीति गम्यते। श्रुतधर्म चारित्रधर्म प्राप्त होने के बाद भी बढे । श्रुतधर्म से ही चारित्रधर्म प्राप्त होता है, लेकिन चारित्र लेने के अनन्तर भी श्रुतधर्म की वृद्धि आवश्यक है यह सूचित किया। . प्रतिदिन ज्ञानवृद्धि का कर्तव्य : यहां 'धम्मो वड्ढउ' कह कर पुनः ‘धम्मुत्तरं वड्ढउ' पद कहा, इससे श्रुत धर्म की पुनः वृद्धि होने की आशंसा व्यक्त की इससे यह बतलाया है कि मोक्षाभिलाषी जीव को यह आवश्यक है कि वह प्रतिदिन सम्यग्ज्ञान की वृद्धि करे। तीर्थंकर-नामकर्म नाम की पुण्य प्रकृति के उपार्जन में कारणभूत अर्हद्-वात्सल्यादि बीस उपायों के अन्तर्गत एक उपाय अपूर्वज्ञान-ग्रहण अर्थात् नित्य नवीन ज्ञान की प्राप्ति रूप फरमाया है। नित्य नये नये ज्ञान की वृद्धि द्वारा त्रैलोक्योपकारक तीर्थंकर नामकर्म प्राप्त होता है। यह आशंसा उपादेय क्यों ? प्र० - यहां श्रुतधर्म वृद्धि की आशंसा क्यों व्यक्त की गई ? आशंसा तो मुमुक्षु के लिए वर्ण्य है। उ० - 'धम्मो वड्ढउ' 'धम्मुत्तरं वड्ढउ' – इस कथन से प्रदर्शित श्रुतधर्मवृद्धि की अभिलाषा का करना यह प्रणिधान स्वरूप है और वह आशंसा रूप होता हुआ भी निराशंस-भाव का बीज है, यानी समस्त इच्छाओं से रहित होने का जो आत्मपर्याय, आत्मावस्था, उसको प्रगट करने में कारणभूत है। यह इसलिए कि यह श्रुतधर्मवृद्धि की पार्थना मोक्ष-प्रतिबद्ध है, मोक्ष के शुद्ध उद्देश से की जाती है। और मोक्ष क्या है ? समस्त रागादि-बन्धनों से मुक्ति, सर्व प्रकार के राग, आसक्ति, व अभिलाषाओं की निवृत्ति । इसके उद्देश से श्रुतधर्मवृद्धि की की जाने वाली प्रार्थना त्याज्य आशंसा रूप कैसे कही जा सकती? प्र० - ठीक है, लेकिन मोक्ष तो अप्रतिबन्ध यानी निराशंस भाव से साध्य है जब कि यहां तो मोक्ष की आशंसा हुई । वह कैसे श्रेयस्कर हो सकती है ? उ० – मोक्ष की आशंसा सचमुच अनाशंसातुल्य है; इसका कारण यह है कि इसमें असंग यानी राग - द्वेष-मोहादि से पर ऐसी अभिलषणीय वस्तु का अनुभव होता है। इसलिए यह कोई दोष रूप आशंसा नहीं है। हां, जो सङ्गयुक्त है अर्थात् राग-द्वेष-मोहादि युक्त है, ऐसे इच्छित की आशंसा प्रतिबन्ध रूप है, अर्थात् दोषपूर्ण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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