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(ल० - निदानगर्ह्यता:-) अतत्त्वदर्शनमेतत्, महदपायसाधनम् । अविशेषज्ञता हि गर्हिता ।
(पं०-) इदमेव विशेषतो भावयन्नाह 'अतत्त्वदर्शनमेतद्' = अपरमार्थावलोकनं, विपर्यास इत्यर्थः, एतत् = प्रकृतनिदानम् । कीदृगित्याह 'महदपायसाधनं' = नरकपाताद्यनर्थकारणम् । कुत इत्याह' अविशेषज्ञता', सामान्येन गुणानां पुरुषार्थोपयोगिजीवाजीवधर्म्मलक्षणानां दोषाणां तदितररूपाणां तदुभयेषां च, विशेषो विवरको विभाग इत्येकोऽर्थः, तस्य अनभिज्ञता विपरीतबोधरूपा, अर्थक्षयानर्थप्राप्तिहेतुतया हिंसानृतादिवत् 'हिः' यस्मात्, 'गर्हिता' = दूषिता ।
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(ल०-प्राकृतजनविवेक:- ) पृथग्जनानामपि सिद्धमेतत् ।
(पं०-) ननु कथमिदं प्रत्येयमित्याशङ्क्याह 'पृथग्जनानामपि', पृथक् = तथाविधालौकिकसामयिकाचारविचारादेर्बहिः स्थिता बहुविधा बालादिप्रकाराः जनाः = प्राकृतलोकाः, पृथग्जनाः तेषामपि किं पुनरन्येषां शास्त्राधीनधियां सुधियामिति 'अपि' शब्दार्थः; 'सिद्धं' = प्रतीतम्, 'एतद्' = अविशेषज्ञतागर्हणम् । 'नार्घन्ति रत्नानि समुद्रजानि, परीक्षका यत्र न सन्ति देशे । आभीरघोषे किल चन्द्रकान्तं त्रिभिः वरारैर्विपणन्ति गोपाः ॥ १ ॥ अस्यां सखे ! बधिरलोकनिवासभूमौ किं कूजितेन तव कोकिल ! कोमलेन । एते हि दैववशतस्तदभिन्नवर्णं त्वां काकमेव कलयन्ति कलानभिज्ञाः ॥ २ ॥ इत्याद्यविशेषज्ञव्यवहाराणां तेषामपि गर्हणीयत्वेन प्रतीतत्वात् ।
इसका परिणाम यह होता है कि जिस प्रकार आरोग्य के लिए औषध सेवन किया तब आरोग्य प्राप्त हो जाने के बाद औषध का कोई ममत्व नहीं रखता है, वह छूट जाता है, इसी प्रकार ऋद्धि हेतु किये गए धर्म सेवन से ऋद्धि मिल जाने पर धर्म का कोई ममत्व नहीं रहता है, धर्म छूट जाता है। बचता है ऋद्धि का ममत्व, वह कहां से मोक्षोपयोगी शुभ भाव को अवकाश दे सकेगा ?
निदान की दूषितता:
इसी वस्तु को विशेष रूप से सोचा जाय, तो कह सकते हैं कि पौद्गलिक आशंसात्मक निदान अतत्त्वदर्शन है, एक भ्रम है। इसमें पारमार्थिक वस्तुतत्त्व का अज्ञान है; क्यों कि 'धर्म की प्रार्थना की जाने पर भी धर्म गौण बन जाने से शुभ भाव का घात एवं उसकी रुकावट होती है, '- यह नहीं समझता। वह निदान तो नरक में गिरना इत्यादि महान अपाय याने अनर्थों का कारण है। ऐसे अनर्थ करने वाला निदान तत्त्वदर्शनमूलक कैसे कहा जाय ? क्यों कि इसमें विशेषज्ञता नहीं है; अर्थात् सामान्य रूप से गुण दोष का याने जीव एवं अजीव के पुरुषार्थोपयोगी धर्म और पुरुषार्थघातक धर्म, - इन दोनों का विशेष कहो, विवरण कहो या विभाग कहो एक ही बात हैं, उसकी अनभिज्ञता है; वह भी मात्र अनजानपन नहीं किन्तु विपरीत बोध स्वरूप है क्योंकि भ्रम से पुरुषार्थ याने इष्ट के साधक धर्मो को अनिष्ट साधक, एवं अनिष्ठ साधक को इष्ट साधक मान लेता है । यह अविशेषज्ञता गर्हित है, निन्द्य है, दूषित है; क्यों कि वह इष्ट के क्षय एवं अनिष्ट की प्राप्ति में कारणभूत है, जैसे कि हिंसा, असत्य आदि । -
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