SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 312
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (ल०-) कियन्तं कालं यावत् तिष्ठामीत्यत्राह 'जाव अरिहंताणमि'त्यादि । यावदिति कालावधारणम्(णे) । अशोकाद्यष्टमहाप्रतिहार्यलक्षणां पूजामर्हन्तीत्यर्हन्तः, तेषामर्हताम्, भगः समग्रैश्वर्यादि लक्षणः, स विद्यते येषां ते भगवन्तः, तेषां सम्बन्धिना नमस्कारेण 'नमो अरिहंताणं'ति अनेन । 'न पारयामि'-न पारं गच्छामि । तावत्किमित्याह 'ताव कायं ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि' तावच्छब्देन कालनिर्देशमाह, 'काय'-देहं, 'स्थानेन'-ऊर्ध्वस्थानेन हेतुभूतेन, तथा 'मौनेन' वाग्निरोधलक्षणेन, तथा 'ध्यानेन'-धर्मध्यानादिना, 'अप्पाणं 'ति - प्राकृतशैल्या आत्मीयम् । अन्ये न पठन्त्येवैनमालापकम् । वोसिरामि' - 'व्युत्सृजामि'-परित्यजामि । इयमत्र भावना, - कायं स्थानमौनध्यान-क्रियाव्यतिरेकेण क्रियान्तराध्यासमधिकृत्य व्युत्सृजामि । नमस्कारपाठं यावत् प्रलम्बभुजो निरुद्धवाक्प्रसरः प्रशस्तध्यानानुगतस्तिष्ठामीति । ततः कायोत्सर्ग करोतीति । जघन्यो (प्र०..... जघन्यतो )ऽपि तावदष्टोच्छवासमानः । प्र०-अरिहंत प्रभु के चैत्यवन्दनार्थ उद्यत पुरुष को कायोत्सर्ग में उच्छ्वासादि की अपेक्षा रखनी शोभास्पद है या नहीं, क्यों कि ऐसी अपेक्षा रखने में भक्ति का अभाव सूचित होता है। भक्ति पर निर्भर आत्मा को भक्तिपात्र को छोडकर अन्यत्र कहीं भी अपेक्षा रखना उचित नहीं है। उ०- पहले कहे मुताबिक उच्छ्वासादि सचेतन देह से अवश्य संबद्ध है, अतः उन कारणों से उनके आगार रखने में आत्मा में भक्ति का कोई अभाव सिद्ध नहीं होता । आप जो अनिवार्य उच्छ्वासादि में अपेक्षा रखनी पड़ी कहते हैं तो यहां अपेक्षा क्या है ? क्यों कि इनमें कोई आसक्ति तो है ही नहीं। अगर आप कहें 'आसक्ति नहीं तब फिर उच्छ्वासादि क्यों लिया जाता है ?' उत्तर यह है कि इसमें इस प्रकार का आगम प्रमाण है,– 'उस्सासं न निरंभई, आभिग्गहिओ वि किमुय चिट्ठाए ? सज्जमरणं निरोहे, सुहुमुस्सासं तु जयणाए ॥' अर्थात् 'किसी अभिग्रहविशेष वाला भी श्वास को न रोके, फिर और क्रिया में तो पूछना ही क्या? क्यों कि श्वासनिरोध में तत्काल मृत्यु होती है। इसलिए यतनापूर्वक सूक्ष्म रूप से श्वास लेना चाहिए।' अगर मरण हो जाए तो क्या हानि? - ऐसा मत कहना, क्यों कि अविधि से मरण प्रशंसनीय नहीं है, और वह विधिमरण नहीं है। विधिमरण तो किसी ब्रह्मचर्यादि पर आक्रमण के अनिवार्य समय पर या मरणान्त आपत्ति के प्रसङ्ग पर या जीवन के अन्तिम काल पर स्वीकार्य होता है; और वह भी अतिचार-मिथ्यादुष्कृत, पुनः व्रतोच्चारण, चतुःशरणगमन इत्यादि विधिपूर्वक किया जाता है। यहां कायोत्सर्गादि में श्वासनिरोध करने से होने वाला मरण तो अविधिमरण है; वह अप्रशस्य है, क्यों कि उसमें इष्ट प्रयोजन की हानि है। कारण यह है कि वहां शुभ भावना, समाधि आदि नहीं टिक सकती, और स्वकीय प्राण का नाश होता है। ऐसे अविधि-प्राणनाश का शास्त्र में निषेध किया गया है। शास्त्र में कहा गया है कि 'सव्वत्थ संजमं, संजमाओ अप्पाणमेव रक्खिज्जा । मुच्चइ अइवायाओ, पुणो विसोही, न याविरई ॥' अर्थात् सर्वत्र संयम की रक्षा करना; और संयम से भी अधिक स्वात्मा की रक्षा करना । कारण, बाद में प्रायश्चित द्वारा संयमनाश के पाप से छूया जाता है, और पुनः संयमविशुद्धि हो सकती है। तदुपरांत अविधि-आत्मनाश से होने वाली अविरति से बचा जाता है। इतनी प्रासङ्गिक चर्चा काफी है। 'जाव अरिहंताणं... वोसिरामि' : कायोत्सर्ग में कितने काल तक रहना है यह बतलाने के लिए कहते हैं 'जाव अरिहंताणं भगवंताणं नमुक्कारेणं न पारेमि' अर्थात् जहां तक अरिहंत भगवान के नमस्कार से न पारुं । यहां 'जाव' = यावत्, जहां तक, या २८७ Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy