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________________ ततोऽसौ गुरुलाघवालोचनचतुरा 'नूनमतः पन्नगादस्य महानपायो भविते'ति विचिन्त्य सत्वरं प्रसारितकरा गर्त्तात् पुत्रमाचकर्ष । यथासौ स्तोकोत्कीर्णशरीरत्वक्तया सपीडेऽपि तत्र न दोषवती, परिशुद्धभावत्वात् (प्र०.... भावात्) तथा सर्वथा त्यक्तसर्बसावद्योऽपि साधुरुपायन्तरतो महतः सावद्यान्तरान्निवृत्तिमपश्यन् गृहिणां द्रव्यस्तवमादिशन्नपि न दोषवानिति। उत्सुक चित्त वाली होकर उसे लाने के लिए वह उस तरफ आ पहुँची। देखती है तो अपना प्यारा पुत्र खड्डे के भीतर है, और उसके पीछे अञ्जन के पुञ्ज-सी श्याम काया वाला एक सर्प चला आ रहा है। सर्प में शाश्वत कोप की छाया फैली हुई है, उसके कोप की शान्ति हो ऐसा दिखाई पड़ता नहीं है, और उसने अपनी फण का अति भयंकर आटोप स्पष्टतः खोल दिया है। स्त्री गौरव-लाघव के आलोचन में चतुर थी, यानी प्रसंग में छोटे मोटे लाभ या हानि क्या है यह समझ सकती थी। इसने सोच लिया कि 'लड़के को फौरन घसीट लेने में होने वाली पीडा की अपेक्षा विलंब करने में इस सांप से महान अनर्थ होगा;' सोचते ही फौरन हाथ लंबा कर के उसने उपर से ही पुत्र को पकड कर खड्डे में से घसीट लिया। अब जिस प्रकार यहां ऐसा करने में बालक की चमड़ी कुछ छिल गई, फिर भी ऐसे पीडायुक्त पुत्र के प्रति माता अपराधिनी नहीं है क्यों कि उसका भाव विशुद्ध है, (अन्य उपाय न होने से प्रस्तुत उपाय द्वारा सांप से पुत्र रक्षण करने का मनोभाव निर्मल होने की वजह से वह दोषपात्र नहीं है,) इस प्रकार साधु स्वयं सर्वथा मन-वचन-काया से करण-कराव-अनुमोदन किसी भी रूप में पाप व्यापार करने के त्याग वाले होते हुए भी जब उसे यह दिखाई देता है कि गृहस्थ को बड़े पापों से निवृत्त कराना दूसरे किसी उपाय द्वारा शक्य नहीं सिवा द्रव्यस्तव के, तब वह उसका उपदेश करने पर भी दोषपात्र नहीं है। __इस लिए जब साधु को भगवत्-पूजा का उपदेश एवं प्रमोद रूप में कारण (कराना) और अनुमोदन है, तब अनुमोदन के संपादनार्थ कायोत्सर्ग करता हुआ साधु कायोत्सर्ग का विषय हुआ ही, विषय नहीं है ऐसा नहीं। इस संबन्ध में आगम ही प्रमाण है, अर्थात् गणधररचित 'अरिहंत चेइयाणं' सूत्र ही प्रमाण है; और भगवान की पूजा एवं सत्कार से निष्पन्न जो कर्मक्षय का लाभ रूप इष्टसिद्धि इसी कायोत्सर्गरीति से होती है; अन्यथा बिना कायोत्सर्ग वह नहीं हो सकती। श्रावक कायोत्सर्ग में भावातिशय कारण :__ अब, श्रावक भी कायोत्सर्ग का विषय है इसका कारण यह है कि वह पूजा-सत्कार करता हुआ भी अपने हृदय में उछलते हुए अत्यन्त भावोल्लास के कारण अधिक लाभ लेने के लिए यह अरिहंत चेइयाणं' इत्यादि कहता है और पूजा-सत्कार निमित्त कायोत्सर्ग करता है। उसको पूजा-सत्कार के बारे में संतोष नहीं है, इसका कारण यह है कि श्रावक का अध्यवसाय जिनपूजासत्कार में निःसीम आकांक्षावश उसके असंतोष-स्वभाववाला होता है; 'इतनी पूजा पर्याप्त है' ऐसा संतोषवाला नहीं। इसका कारण यह है कि पूर्वकालभावी देशविरतिपरिणाम,अर्थात् 'आरम्भत्याग' नामक आठवीं श्रावक प्रतिमा (प्रतिमा= अभिग्रहविशेष), जिसमें सचित्त यानी जीवयुक्त काया की हिंसा त्याज्य होती है, वैसी अवस्था के पूर्व काल में रहे हुए श्रावक का अध्यवसाय, - निश्चित रूप से जिनपूजा-सत्कार करने की लालसा लंपटता वाला होता है। कहा है 'जिनपूजासत्कारयोः करणलालसः खलु आद्यो देशविरतिपरिणाम:' । ऐसी लालसा बनी रहने से वह कितना ही पूजासत्कार करे फिर भी उसमें उसे संतोष नहीं होता है। इससे यह सूचित होता है कि अगर जिनपूजा सत्कार की उत्कट लालसा न हो तो अंतर में श्रावकपन २६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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